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पीछे लहरें उठती हैं, झील डांवांडोल हो जाती है। जैसे शांत झील है, तुम बैठे किनारे, उठा कर एक पत्थर फेंक दिया, छपाक अवाज हुई और झील लहरों से भर गई-ऐसे ही वांछा का पत्थर, चाह का पत्थर, जैसे ही मन में पड़ता है कि सारा डावांडोल हो जाता है।
तुम करके देखो। करके देखने की बात नहीं है, रोज तुम कर ही रहे हो। तुम इस शेखचिल्ली को कहीं किसी दूसरे में मत देखना। कई बार तुम अगर जरा पकड़ने की कोशिश करोगे तो अपने में ही पकड़ लोगे। कितनी बार नहीं यह शेखचिल्ली तुम्हारे भीतर तुम्हारे कितने रूप लेत! मन शेखचिल्ली है। और जब तुम शेखचिल्ली को पकड़ लो, तो जरा हंसना अपने पर और अपनी मूढ़ता पर। क्योंकि जो व्यक्ति अपनी मूढ़ता पर हंसने लगे वह बुद्धिमान होना शुरू हो गया। क्योंकि जो मूढ़ता पर हंसता है वह साक्षी हो गया।
यदा चित्तं वांछति किंचित शोचति......। सोचा कि उलझे। सोच-विचार में जाल है। जब भी तुमने कोई विचार उठाया कि तुम उसमें डूबे। जैसे ही विचार उठता है, तुम गौण हो जाते हो, विचार प्रमुख हो जाता है। भीतर सब मूल्य परिवर्तन हो जाते हैं। तुम विचार में इतने संलग्न हो जाते हो कि तुम्हें स्मरण भूल जाता है कि तुम द्रष्टा हो; तुम विचारक हो जाते हो।
तीन स्थितियां हैं तुम्हारी। एक तो साक्षी की तब मन बिलकुल नहीं है, क्योंकि कोई तरंग ही नहीं है। मन तो तरंगों का जोड़ है, विचार के प्रवाह का नाम है। साक्षी की दशा-तब झील बिलकुल मौन है, कोई हवा कंपाती नहीं।
फिर दूसरी अवस्था है-विचारक की। झील कैप गई। विचार के बीज पड़ गए हैं। विचार का पत्थर गिरा, वांछा उठी, सब कंपित हो गया, दर्पण खो गया-वह दर्पण जैसी शांत झील जो अभी तक चांद को झलकाती थी, अब नहीं झलकाती। अब चांद भी टुकड़े-टुकड़े हो गया। चांदी फैल गई पूरी झील पर, लेकिन चांद का प्रतिबिंब अब कहीं भी ठीक से नहीं बनता, सब विकृत हो गया। यह दूसरी अवस्था।
फिर तीसरी अवस्था कर्ता की। वह जो विचार में तुमने पकड़ लिया, जल्दी ही कर्म बनेगा। साक्षी, विचार और कर्म। कर्म में आ गए तो घने जंगल में आ गए संसार के। विचार में थे, तो आ रहे थे संसार की तरफ। साक्षी से चूक गए थे, कर्म में आए न थे, मध्य में अटके थे-त्रिशक थे। साक्षी को जो उपलब्ध हो ले वह व्यक्ति है धार्मिक। जो विचार में उलझा रहे, वह व्यक्ति है दार्शनिक। और जो कर्म में उतर आए, वही है राजनीतिज्ञ।
धर्म, दर्शनशास्त्र और राजनीति-ये तुम्हारे चित्त की तीन अवस्थाएं हैं। धर्म का कोई संबंध न तो कृत्य से है और न विचार से है। धर्म का संबंध तो शुद्ध साक्षीभाव से है। फिर दर्शनशास्त्र है, उसका संबंध सिर्फ विचार से है। वह तरंगों का हिसाब लगाता; तरंगों के हिसाब में झील को भूल जाता तरंगों की गिनती में भूल ही जाता किसकी तरंगें हैं। और फिर सबसे ज्यादा भटकी हुई अवस्था राजनीतिक चित्त ही है; वह तरंगों तक से चूक जाता है। वह तो तरंगों के जो परिणाम होते हैं अगर