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है, अब तुम्हारी मौज। तुम्हें ध्यान करना हो करो, न करना हो न करो। लेकिन मैं तुमसे यह नहीं कहूंगा कि अनिवार्य रूप से तुम्हें ध्यान करना है। क्योंकि जैसे ही अनिवार्य हुई कोई बात वैसे ही गड़ने लगती है, कांटे की तरह गड़ने लगती है। ध्यान जैसी महिमापूर्ण चीज को खराब तो मत करो।
तो तुम पूछे हो कि अनिवार्य साधना निश्चित होती आश्रमों में जिसका अभ्यास उन्हें नियमित करना होता है।
नहीं, यहां मेरे पास कुछ भी नियम नहीं है और न कोई अभ्यास है तुम्हें देने को। सब अभ्यास अहंकार के हैं। अध्यात्म का कोई अभ्यास नहीं। मैं तो कहता हूं. जागो! इति ज्ञानं! यही ज्ञान है! इति ध्यान! यही ध्यान है! इति मोक्ष:! यही मोक्ष है!
तुम जाग कर जीने लगो, ध्यान तुम्हारे चौबीस घंटे पर फैल जाएगा। ध्यान कोई ऐसी चीज थोड़े ही है कि कर लिया सुबह उठ कर और भूल गए फिर। ध्यान तो ऐसी धारा है जो तुम्हारे भीतर बहनी चाहिए। ध्यान तो ऐसा सूत्र है जो तुम्हारे भीतर बना रहना चाहिए; जो तुम्हारे सारे कृत्यों को पिरो दे एक माला में। जैसे हम माला बनाते हैं तो फूलों को धागे में पिरो देते हैं, फूल दिखाई पड़ते, धागा तो दिखाई भी नहीं पड़ता-ऐसा ही ध्यान होना चाहिए, दिखाई ही न पड़े। जीवन के सब कामउठना-बैठना, खाना-पीना, चलना, बोलना, सुनना, सब-फूल की तरह ध्यान में अनस्थूत हो जाएं, ध्यान का धागा सब में फैल जाए।
तो ध्यान तो मेरे लिए जागरण और साक्षी- भाव का नाम है।
और जब मैं न रहूंगा तब निश्चित यह उपद्रव होने वाला है। क्योंकि कोई न कोई 'योग चिन्मय' इस कुर्सी पर बैठ जायेंगे। ऐसी मुश्किल है यह कुर्सी खाली थोड़े ही रहेगी। कोई न कोई चलाने लगेगा अनुशासन। जिस दिन अनुशासन चलने लगे, उस दिन समझना मेरा संबंध टूट गया इस जगह से। जिस दिन यहां नियम हो जाए, अनिवार्यता हो जाए, अभ्यास हो जाए, उस दिन जानना यह मेरा आश्रम न रहा; यह एक मुर्दा आश्रम हो गया, जो जुड़ गया दूसरे मुर्दा आश्रमों से।
मेरे जीते-जी ऐसा न हो सकेगा। मैं स्वयं जी रहा हूं और तुम्हें भी जिंदा देखना चाहता हूं मुर्दा नहीं। मैं तुम्हें साधक नहीं मानता। मैं तुम्हें सिद्ध मानता हूं। और मैं चाहता हूं कि तुम भी अपनी सिद्धावस्था को स्वीकार कर लो। मैं चाहता हूं कि तुम भी कह सको : अहो, मेरा मुझको नमन!
चौथा प्रश्न :
आबू में जो अनुभव हुआ था वह अब प्रगाढ़ हो गया है। सतत आनंद का भाव बना रहता है। जीवन धन्य हो गया प्रभु! जो अनुभव में आया है, उसे कह नहीं पाती। अहोभाव के सागर में तैर रही हूं। मेरे अनंत प्रणाम स्वीकार करें।