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दे रहे थे प्रिंसिपल से ले कर परमात्मा तक को मां-बहन की गाली ! मैंने सुना, यह भी खूब हो रहा है ! इस गाली-गलौज के बाद फिर उनको प्रार्थना करने खड़ा होना पड़ता था, तो वे किसी तरह प्रार्थना करते। मैंने प्रिंसिपल को कहा कि देखो, तुम नर्क में सडोगे। उसने कहा, क्या मतलब?
मैंने कहा कि ये लड़के, सत्तर लड़के, रोज सुबह अनिवार्य रूप से प्रिंसिपल से ले कर परमात्मा तक को गाली देते हैं। तुम्हें गाली ठीक, मगर परमात्मा को गाली पड़ रही हैं, तुम इसके कारण हो।
यह अनिवार्यता खतरनाक है, मैंने कहा ।
उसने कहा, नहीं, यह अनिवार्य नहीं है; जैसा कि लोग हमेशा कहते हैं। यह तो लोग अपनी स्वेच्छा से, अपने मजे से करते हैं। तो मैंने कहा, फिर मेरे हाथ में आप दे दो। मैं नोटिस लगा देता हूं और कल तीन बजे सुबह आप भी कुएं पर मौजूद हो जाना और मैं भी हो जाऊंगा।
नोटिस मैंने लगा दिया कि 'जिनको करना हो स्नान तीन बजे केवल वे ही उठें; जिनको प्रार्थना सम्मिलित होना हो केवल वे ही उठें। कोई अनिवार्यता आज से नहीं है। '
मेरे और प्रिंसिपल के सिवाय कुएं पर कोई नहीं था। मैंने पूछा, कहो जनाब! अब अगर हिम्मत हो तो डूब जाओ कुएं में!
उन्होंने मुझे छह महीने के भीतर वहां से कहा कि नहीं, आप यहां से जाओ, यह सब गड़बड़ कर दिया ! सब ठीक चल रहा था।
इसको ठीक चलना कहते हो? अनिवार्यता त्रः प्रार्थना और अनिवार्य हो सकती है? प्रेम और अनिवार्य हो सकता है? पूजा और अनिवार्य हो सकती है ? अनिवार्य तो केवल चीजें कारागृह में होती हैं। जीवन में कुछ भी अनिवार्य नहीं । भूल कर भी किसी चीज को अनिवार्य मत करना, अन्यथा उसी क्षण उस चीज का मूल्य नष्ट हो जाएगा।
'जीवन बड़ा नाजुक है, फूल जैसा नाजुक है! इस पर अनिवार्यता के पत्थर मत रख देना, नहीं तो फूल मर जाएगा। मुझसे कोई आ कर भी पूछता आश्रमवासी हैं, मुझसे पूछते हैं आ कर कि हम अनिवार्य – रूप से आपको सुबह सुनने आएं? मैं कहता हूं, भूल कर मत आना । अनिवार्य, और मुझे सुनने? तुम मुझे गालियां देने लगोगे। तुम्हें आना हो तो आना, तुम्हें न आना हो तो न आना। और भूल कर भी अपराध अनुभव मत करना कि हम आश्रम में रहते हैं और हम सुनने न गए और लोग इतने दूर से आते हैं! इसकी फिक्र छोड़ो। तुम्हारी जब मौज हो, तब तुम आ जाना। तो अगर महीने में तुम एक बार भी आए तो इतना पा लोगे जितना कि अनिवार्य आ कर महीने भर में भी नहीं पा सकते थे; क्योंकि पाने की घटना तो प्रेम से घटती है।
तो यहां अनिवार्य कुछ भी नहीं है। और अनुशासन जो बाहर से थोपा जाए वे तो बेड़ियां हैं। मैं तुमसे कहूं कि ध्यान करो यह भी कोई बात हुई? मैं रोज सुबह समझा रहा हूंं ध्यान का रस, बहाता रसधार सुबह रोज ध्यान की, गंगा तुम्हारे सामने कर देता हूं- अब यह भी तुमसे कहूं कि रोज गंगा में स्नान करो, कि रोज पीयो जलधार? अब यह तुम्हारी मर्जी है। इतना क्या कम है कि मैंने गंगा तुम्हारे सामने ला दी। अब यह भी मुझे करना पड़ेगा ? गंगा का इतना गुणगान कर दिया, अब ठीक