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कितनी लधु अंजुलि हमारी-प्रवचन-नौवां
दिनांक: 4 अक्टूबर, 1976; श्री रजनीश आश्रम, पूना। प्रश्न सारः
पहला प्रश्न :
आपने कहा कि सब आदर्श गलत हैं। लेकिन क्या अपने गंतव्य को, अपनी नियति को पाने का आदर्श भी उतना ही गलत है?
र्श गलत है; किस बात को पाने का आदर्श है, इससे कोई भेद नहीं पड़ता। आदर्श का
अर्थ है : भविष्य में होगा। आदर्श का अर्थ है : कल होगा। आदर्श का अर्थ है. आज उपलब्ध नहीं है। आदर्श स्थगन है भविष्य के लिए।
जो तुम्हारी नियति है उसे तो आदर्श बनाने की कोई भी जरूरत नहीं; वह तो होकर ही रहेगा, वह तो हुआ ही हुआ है।
नियति का अर्थ है, जो तुम्हारा स्वभाव है। इस क्षण जो पूरा का पूरा तुम्हें उपलब्ध है वही तुम्हारी नियति है। सब आदर्श नियति-विरोधी हैं।
आदर्श का अर्थ ही यह होता है कि तुम वह होना चाहते हो जो तुम पाते हो कि हो न सकोगे। गुलाब तो गुलाब हो जाता है, कमल कमल हो जाता है। कमल के हृदय में कहीं कोई आदर्श नहीं है कि मैं कमल बनं। अगर कमल कमल बनना चाहे तो पागल होगा, कमल नहीं हो पाएगा।
जो तुम हो वह तो तुम हो ही बीज से ही हो। उससे तो अन्यथा होने का उपाय नहीं है।
इसलिए नियति के साथ, स्वभाव के साथ आदर्श को जोड़ना तो विरोधाभास है। पर हमारे मन पर आदर्श की बड़ी पकड़ है। सदियों से हमें यही सिखाया गया है कि कुछ होना है, कुछ बनना है, कुछ पाना है। दौड़ सिखाई गई, स्पर्धा सिखाई गई, वासना सिखाई गई-अनत- अनंत रूपों में।
अष्टावक्र का उदघोष यही है कि जो तुम्हें होना है वह तुम हो ही। कुछ होना नहीं है जीना है। इस क्षण तुम्हें सब उपलब्ध है। एक क्षण भी टालने की कोई जरूरत नहीं है। एक क्षण भी टाला तो भ्रांति में पड़े। तुम जीना शुरू करो-तुम परिपूर्ण हो।
समस्त अध्यात्म की मौलिक उदघोषणा यही है कि तुम परिपूर्ण हो, जैसे तुम हो। होने को कुछ परमात्मा ने बाकी नहीं छोड़ा है। और जो परमात्मा ने बाकी छोड़ा है, उसे तुम पूरा न कर पाओगे।