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तुम्हें पकड़ना–छोड़ना छोड़ना है। न पकड़ो न छोड़ो। तुम दोनों से दूर हट कर खड़े हो जाओ, देखने वाले बनो, द्रष्टा बनो, साक्षी बनो!
अहो अहम् चिन्मात्रम् जगत इंद्रजालोपमम्।
अत: मन हेयोपादेय कल्पना कथम् च कुत्र इसलिए जनक ने कहा, मुझे तो कल्पना भी नहीं उठती कि कौन ठीक, कौन गलत। अब तो सब ठीक या सब गलत। मैं जाल के बाहर खड़ा, चिन्मात्र! चिन्मयरूप! केवल चैतन्य! केवल साक्षी! आप किससे कह रहे हैं त्याग की बात? वे कहने लगे। आप किससे कह रहे हैं कि मैं ज्ञान को उपलब्ध होऊं? इति ज्ञान!
हरि ओम तत्सत्!