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उलझे, और से उलझे, अन्य से उलझे । जब तुम अव्यस्त होते हो, अनआकुपाइड, जब तुम किसी से भी नहीं उलझे तब तुम्हें अपनी याद आनी शुरू होती है, स्वयं का स्मरण होता है।
'अहो, मैं चैतन्य-मात्र हूं। संसार इंद्रजाल की भांति है। '
और तब तुम्हें पता चलता
कि तुम्हारी सारी व्यस्तता बचपना, खेल है। धन कमा रहे हो, धन के ढेर लगा रहे हों - क्या मिलेगा? बड़े से बड़े पद पर पहुंच जाओगे - क्या पाओगे? सफल आदमियों से असफल आदमी तुम कहीं और खोज सकते हो? जो सफल हुआ वह मुश्किल में पड़ा । सफल हो कर पता चलता है. अरे, यह तो जीवन हाथ से गया, और हाथ तो कुछ भी न लगा।
कहते हैं सिकंदर जब भारत आया और पोरस पर उसने विजय पा ली, तो एक कमरे में चला गया, एक तंबू में चला गया, और रोने लगा। उसके सिपहसालार, उसके सैनानी बड़े चिंतित हो गए। उन्होंने कभी सिकंदर को रोते नहीं देखा था। उसे कैसे व्यवधान दें, कैसे बाधा डालें - यह भी समझ
नहीं आता था। फिर किसी एक को हिम्मत करके भेजा। उसने भीतर जा कर सिकंदर को पूछा ' आप रो क्यों रहे हैं? और विजय के क्षण में! अगर हार गए होते तो समझ में आता था कि आप रो रहे हैं। विजय के क्षण में रो रहे हैं, मामला क्या है? पोरस रोए, समझ में आता है। सिकंदर रोए ? यह तो घड़ी उत्सव की है। '
सिकंदर ने कहा, इसीलिए तो रो रहा हूं । अब दुनिया में मुझे जीतने को कुछ भी न बचा। अब दुनिया में मुझे जीतने को कुछ भी न बचा, अब मैं क्या करूंगा?
शायद पोरस न भी रोया हो, कोई कहानी नहीं पोरस के रोने की। क्योंकि पोरस को तो अभी बहुत कुछ बचा कम से कम सिकंदर को हराना तो बचा है; अभी इसके तो उसको दात खट्टे करने हैं। मगर सिकंदर के लिए कुछ भी नहीं बचा है। वह थर्रा गया। सारी व्यस्तता एकदम समाप्त हो गई। आ गया शिखर पर! अब कहां ? अब इस शिखर से ऊपर जाने की कोई भी सीढ़ी नहीं है। अब क्या होगा? यह घबड़ाहट सभी सफल आदमियों को होती है। धन कमा लिया, पद पा लिया, प्रतिष्ठा मिल गई, लेकिन इतना करते करते सारा जीवन हाथ से बह गया। एक दिन अचानक सफल तो हो गए, और एक साथ ही उसी क्षण में, पूरी तरह विफल भी हो गए। अब क्या हो? राख लगती है हाथ। व्यस्त आदमी आखिर में राख का ढेर रह जाता, अंगार तो बिलकुल ढक जाती या बुझ जाती
है।
थोड़े- थोड़े अव्यस्त क्षण खोजते रहना । कभी-कभी थोड़ा समय निकाल लेना अपने में डूबने का। भूल जाना संसार को भूल जाना संसार की तरंगों को थोडे गहरे में अपनी प्रशांति में अपनी गहराई में थोड़ी डुबकी लेना। तो तुम्हें भी समझ में आएगा तभी समझ में आएगा - किस बात को नक कहते हैं : इति ज्ञान! यही ज्ञान है।
'अहो, मैं चैतन्य - मात्र हूं! संसार इंद्रजाल की भांति है। इसलिए हेय और उपादेय की कल्पना किसमें हो?'
अब मुझे न तो कुछ हेय है, न कुछ उपादेय है। न तो कुछ हानि, न कुछ लाभ। न तो कुछ