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पाने -योग्य, न कुछ डर कि कुछ छूट जाएगा। मैं तो सिर्फ चैतन्यमात्र हूं। अहो
यही तो मुक्ति है। जब तक तुम कर्मों में उलझे हो तब तक तुममें भेद है। जैसे ही तुम साक्षी बने सब भेद मिटे। अपने-अपने कर्मों का फल
भोग रहा है हर कोई सूरज तो इक-सा ही चमके नाथों और अनाथों पर। अपने-अपने कर्मों का फल
भोग रहा है हर कोई। तुम अपने कर्मों से बंधे हो और फल भोग रहे हो।
सूरज तो इक-सा ही चमके
नाथों और अनाथों पर। सूरज तो सब पर एक-सा चमक रहा है। परमात्मा तो सब पर एक-सा बरस रहा है। लेकिन तुमने अपने-अपने कर्मों के पात्र बना रखे हैं। कोई का छोटा पात्र, किसी का बड़ा पात्र। किसी का गंदा पात्र, किसी का सुंदर पात्र। परमात्मा एक-सा बरस रहा है। किसी का पाप से भरा पात्र, किसी का पुण्य से भरा पात्र लेकिन सभी पात्र सीमित होते हैं-पापी का भी, पुण्यात्मा का भी। तुम जरा पात्र को हटाओ, कर्म को भूलो, कर्ता को विस्मरण करो-साक्षी को देखो! साक्षी को देखते ही तुम पाओगे. तुम अनंत सागर हो, परमात्मा अनंत रूप से तुममें बरस रहा है।
अहो अहम् चिन्मात्रम्! तुम तब पाओगे, जैसा कि जनक ने बार-बार पीछे कहा कि ऐसा मन होता है कि अपने ही चरण छू लूं। ऐसा धन्यभाग, ऐसा प्रसाद कि अपने को ही नमस्कार करने का मन होता है!
दामने-दिल पे नहीं बारिशे-इल्हाम अभी
इश्क नापुख्ता अभी जच्चे दरूखाम अभी। दिलरूपी दामन पर अगर दैवी वर्षा नहीं हो रही है तो इतना ही समझना कि प्रेम अभी कच्चा और भीतर की भावना अपरिपक्य।
दामने -दिल पे नहीं बारिशे-इल्हाम अभी! अगर प्रभु का प्रसाद नहीं बरस रहा है तो यह मत समझना कि प्रभु का प्रसाद नहीं बरस रहा है। इतना ही समझना. इश्क नापुख्ता अभी! अभी तुम्हारा प्रेम कच्चा। जज्वे-दरूखाम अभी। और अभी तुम्हारी भीतर की चैतन्य की दशा परिपक्व नहीं। अन्यथा परमात्मा तो बरस ही रहा है पात्र पर, अपात्र पर; पुण्यात्मा पर, पापी पर।
सूरज तो इक-सा ही चमके नाथों और अनाथों पर।