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________________ कहां पागल होने की! इतनी व्यस्तता है! एक मनोवैज्ञानिक खोजबीन कर रहा था कि किस तरह के लोग सर्वाधिक सुखी होते हैं। और वह बड़े अजीब निष्कर्ष पर पहुंचा। वे ही लोग सर्वाधिक सुखी मालूम होते हैं जिनको इतनी भी फुर्सत नहीं कि सोच सकें कि हम सुखी हैं कि दुखी। इतनी फुर्सत मिली कि दुख शुरू हुआ। तुम राजनीतिज्ञों को बड़ा सुखी पाओगे, बड़े प्रफुल्लता से भरे हुए गजरे इत्यादि पहने हुए, भागे चले जा रहे हैं। और कारण कुल इतना ही है कि उनको इतना भी समय नहीं है कि वे बैठ कर एक दफा सोच लें, पुनर्विचार करें कि हम सुखी हैं कि दुखी? इतना समय कहां! बंधे कोल्ह के बैलों की तरह, भागे चले जाते हैं दिल्ली चलो! फुर्सत कहां है कि इधर-उधर देखें! और धक्कम - धुक्कीं इतनी है कि कोई टल खींच रहा, कोई आगे खींच रहा, कोई पीछे खींच रहा, कोई एक हाथ पकड़े, कोई दूसरा, कुछ समझ में नहीं आता है कि हो क्या रहा है! लेकिन भागे चले जाते हैं। आपाधापी में फुरसत नहीं मिलती। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि जो लोग व्यस्त रहते हैं सदा, वे कम पागल होते हैं, कम आत्महत्या करते हैं। उन्हें याद ही नहीं रह जाती कि वे हैं भी। उन्हें पता भूल जाता है अपना सारा जीवन, सारी ऊर्जा व्यर्थ कामों में इतनी संलग्न हो जाती है। इसीलिए कभी-कभी थोड़े - बहुत दिनों के लिए चुप हो कर स्वात में बैठ जाना शुभ है। वहां तुम्हें पता चलेगा कि अव्यस्त होने में तुम कितने बेचैन होने लगते हो खालीपन कैसा काटता है ! लोग मुझसे पूछते हैं कि लोग दुख को क्यों पसंद करते हैं, क्यों चुनते हैं ? लोग दुख को पसंद कर लेते हैं खालीपन के चुनाव में खालीपन से तो लोग सोचते हैं दुख ही बेहतर है। कम से कम सिरदर्द तो है, सिर में कुछ तो है। उलझनें हैं तो कुछ तो उपाय है, कुछ करने की सुविधा तो है। लेकिन कुछ भी नहीं है तो। और जो आदमी खाली होने को राजी नहीं, वह कभी स्वयं तक पहुंच नहीं पाता। क्योंकि स्वयं तक पहुंचने का रास्ता खाली होने से जाता है, रिक्त, शून्यता से जाता है। वही तो ध्यान है । या कोई और नाम दो। वही समाधि है। जब तुम थोड़ी देर के लिए सब व्यस्तता छोड़ कर बैठ जाते हो, किनारे पर, नदी की धार से हटकर, नदी बहती, तुम देखते, तुम कुछ भी करते नहीं - उन्हीं क्षणों में धीरे- धीरे साक्षी जागेगा । लेकिन साक्षी के जागने से पहले शून्य के रेगिस्तान से गुजरना पड़ेगा। वह मूल्य है, जिसने चुकाने की हिम्मत न की, वह कभी साक्षी न हो पाएगा। थोड़ा दूर होना जरूरी है। हम चीजों में इतने ज्यादा खड़े हैं कि हमें दिखाई ही नहीं पड़ता कि हम चीजों से अलग हैं। थोड़ा-सा फासला, थोड़ा स्थान, थोड़ा अवकाश कि हम देख सकें कि हम कौन हैं? जगत क्या है? क्या हो रहा है हमारे जीवन का ? थोड़े-थोड़े खाली अंतराल तुम्हें आत्मबोध के लिए कारण बन सकते हैं। उन्हीं - उन्हीं अंतरालों में तुम्हें थोड़ी-थोड़ी झलक मिलेगी : 'अहो, मैं चैतन्य-मात्र हूं!' व्यस्तता में तो तुम्हें कभी पता न चलेगा। व्यस्तता का तो मतलब है. वस्तुओं से
SR No.032110
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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