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तुम्हें अपने आदमी होने की याद ही तब आती है जब तुम भूल चूक करते हो। तब तुम कहते हो. टू इर्र इज झूमन। भूल-चूक करना तो आदमी है। और तुम्हें आदमी होने की याद नहीं आती? क्षमा मांग कर या उसके चरण छू कर वह भी सोचता है कि नहीं, आदमी तो अच्छा है। वह भी क्यों सोचता है कि आदमी अच्छा है? क्रोध करके तुमने उसके अहंकार को चोट पहुंचा दी थी तो वह नाराज था। अब तुमने उसके पैर छू लिए, फूल चढ़ा आए, गुलदस्ता भेंट कर आए। वह भी सोचता है कि आदमी तो अच्छा है। वह क्यों सोचता है ? तुमसे उसे भी कुछ लेना-देना नहीं । न तुम्हें उससे कुछ लेना-देना है। वह सोचता है आदमी अच्छा है, क्योंकि अब तुमने उसके अहंकार पर फूल रख दिए । घड़ी भर पहले चांटा मार आए थे तो वह तमतमा गया था, बदला लेने की सोच रहा था, अदालत में जाने की सोच रहा था। तुम फूल रख आए झंझट बची। अदालत भी बची। प्रतिष्ठा तुम्हें मिली। उसका अहंकार भी प्रतिष्ठित हो गया, तुम्हारा भी प्रतिष्ठित हो गया। संसार फिर वैसा ही चल पड़ा जैसा तुम्हारे चांटा मारने के पहले चल रहा था। फिर जगह पर आ गईं चीजें । फिर वहीं के वहीं खड़े हो गए जहां थे।
नहीं, जिस व्यक्ति को वस्तुतः समझना हो, वह जाएगा - पश्चात्ताप करने नहीं, स्वीकार करने। वह जाएगा कहने कि भाई देख लिया, आदमी मैं कैसा हूं? तुम्हारी धारणा मेरे प्रति गलत थी। तुम जो सोचते थे कि मैं आदमी अच्छा हूं वह गलत धारणा थी। मेरा असली आदमी प्रगट हो गया । और अच्छा हुआ कि प्रगट हो गया। अब तुम सोच लो . आगे मुझसे संबंध रखना कि नहीं रखना। मैं कोई भरोसा नहीं देता कि कल ऐसा फिर न होगा। मैं भरोसे - योग्य नहीं हूं। मैं भरोसा दूं भी तो भरोसा रखना मत, क्योंकि मैंने पहले लोगों को भरोसे दिए और धोखा दिया। मैं आदमी बुरा हूं । शैतानियत मेरा स्वभाव है।
सोचते हो तुम इसका क्या परिणाम होगा? दूसरे पर क्या होगा, वह दूसरा जाने, लेकिन तुम्हारे भीतर एक सरलता आ जाएगी। तुम एकदम सरल हो जाओगे। तुम एकदम विनम्र हो जाओगे। यह पश्चात्ताप नहीं है, यह स्वीकार - भाव है। तुमने सब चीजें साफ कर दीं अपने बाबत, कि तुम आदमी कैसे हो। और तुमने अपने बाबत कोई भ्रम नहीं संजोया है। और तब एक क्रांति घटित होती है। वह क्रांति घटती है स्वीकार के इस महासत्य से, इस महासूत्र से तुम अचानक पाते हो कि धीरे- धीरे क्रोध मुश्किल हो गया, अब क्रोध करने का कारण क्या रहा? क्रोध तो इसलिए हो जाता था कि कोई तुम्हारे अहंकार को गिराने की कोशिश कर रहा था, तो क्रोध हो जाता था। अब तो तुमने खुद ही वह प्रतिमा गिरा दी। तुम तो उसे खुद ही कचरे -घर में फेंक आए। अब तो कोई तुम्हें क्रोधित कर नहीं सकता। ध्यान रखना, हमारा मन सदा होता है जिम्मेवारी दूसरे पर छोड़ दें। हम सब यही करते हैं। हजार-हजार उपाय से हम यही काम करते हैं कि हम दूसरे पर जिम्मेवारी छोड़ देते हैं।
एक आदमी को मैं जानता हूं - महाक्रोधी । उससे मैंने पूछा, इतना क्रोध कैसे हो गया है? उसने कहा, क्या करूं, मेरा बाप बड़ा क्रोधी था। उसकी वजह से, बचपन से ही कुसंस्कार पड़ गए। मगर यह आदमी जो कह रहा है, हंसना मत। फ्रायड भी यही कह रहा है। बड़े से बड़े मनोवैज्ञानिक