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असहिष्णुता अशांति का बीज है।
कह रहे हैं. ये लहरें हैं। कभी-कभी क्रोध आता, कभी-कभी काम आता, कभी-कभी लोभ आता। इतस्ततः! यहां-वहां! स्वांतवातेन! भटकता सब कुछ ! पर मैं तो देखता हूं। अब मुझे कुछ लेना-देना नहीं। अब मेरा कोई भी आग्रह नहीं है कि ऐसा हो जाऊं। मैं जैसा हूं, बस प्रसन्न हूं | आदर्श - मुक्ति में सहिष्णुता है। और मैं किसे संन्यासी कहता हूं? उसी व्यक्ति को संन्यासी कहता हूं जिसने आदर्शों का त्याग कर दिया। अब तुम जरा चौकोगे। तुमने सदा यही सुना है कि जिसने संसार का त्याग कर दिया वही संन्यासी । मैं तुमसे कहता हूं जिसने आदर्शों का त्याग कर दिया, वह संन्यासी । क्योंकि आदर्श के त्याग के बाद असहिष्णु होने का कोई उपाय नहीं रह जाता।
तुम जरा करके तो देखो। एक महीना सही। एक महीना, तुम जो है, उसे स्वीकार कर लो। किसी ने कुछ कहा, और तुम क्रोधित हो गए - स्वीकार कर लो। स्वीकार करने का मतलब यह नहीं कि तुम सिद्ध करो कि मेरा क्रोध ठीक है। तुम इतना ही स्वीकार कर लो कि मैं आदमी क्रोधी हूं । और दूसरे से कहना कि भई क्रोधी से दोस्ती बनाई, तो कांटे तो चुभेंगे। मैं आदमी क्रोधी हूं । ग तुम्हारी है कि मुझसे दोस्ती बनाई कि मुझसे पहचान की। अब अगर मेरे साथ रहोगे तो क्रोध कभी-कभी होने वाला है। मैं तुम्हें यह भी वचन नहीं देता कि कल मैं अक्रोधी हो जाऊंगा। कल का किसको पता है! जहां तक मैं जानता हूं अतीत में कभी भी अक्रोधी नहीं रहा इसलिए बहुत संभावना तो यही है कि कल भी क्रोधी रहूंगा। तुम सोच लो । मैं पश्चात्ताप भी नहीं कर सकता क्योंकि पश्चात्ताप बहुत बार कर चुका उससे कुछ हल नहीं होता, वह धोखा सिद्ध होता है। क्रोध कर लेता हूं? पछता लेता हूं फिर क्रोध करता हूं । पश्चात्ताप का क्या सार है तुमसे इतना ही कहता हूं कि अब पश्चात्ताप की लीपापोती भी न करूंगा।
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पश्चात्ताप का मतलब होता है. लीपापोती । तुम किसी से क्रोधित हो गए, फिर घर लौट कर आए, तुमने सोचा. 'यह भी क्या हुआ, बीच बाजार में भद्द करवा ली, लोग क्या सोचेंगे! अब तक सज्जन समझे जाते थे। लोग कहते थे कि बड़े गुरु- गंभीर ! आज सब उथलापन सिद्ध हो गया। लोग सोचते थे स्वर्ण-पात्र, अल्युमीनियम के सिद्ध हुए जरा में एकदम गरमा गए । अब कुछ करो, प्रतिमा खंडित हो गई, औंधे मुंह पड़ी है! उठाओ, सिंहासन पर फिर बिठाओ। ' फिर तुम गए सोच-विचार कर कहा, क्षमा करना भाई! मैं करना नहीं चाहता था, हो गया !
सोचते हो, क्या लोग कहते हैं? लोग कहते हैं- मैं करना नहीं चाहता था, हो गया ! मेरे बावजूद हो गया। न मालूम कैसे हो गया! कौन शैतान मेरे सिर चढ़ गया।
सुनते हो लोगों की बातें? अब खुद शैतान हैं, यह स्वीकार न करने का उपाय कर रहे हैं। 'कौन शैतान मेरे सिर चढ़ गया। कैसी दुर्बुद्धि ? लेकिन होश आया, पछताने आया हूं, क्षमा करना। ' तुम कर क्या रहे हो? तुम यह कर रहे हो कि वह जो प्रतिमा तुम्हारी बीच बाजार में खंडित हो गई, वह जो गिर पड़ी जमीन पर उसे तुम उठा रहे हो। तुम कह रहे हो कि मैं बुरा आदमी नहीं हूं। भूल-चूक हो गई। भूल-चूक किससे नहीं हो जाती! आदमी भूल-चूक करता ही है।