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________________ यह भी स्वाभाविक है, वह भी स्वाभाविक है। जो इस घड़ी हो रहा है, उससे अन्यथा मैं नहीं होना चाहता। इस बात की क्रांति को समझे? जो इस क्षण हो रहा है, वही मैं हूं. क्रोध तो क्रोध, लोभ तो लोभ, काम तो काम। इस क्षण मैं जो हूं वही मैं हं और इससे अन्यथा की मैं कोई मांग नहीं करता और न अन्यथा का कोई आवरण खड़ा करता हूं। अक्सर अच्छे-अच्छे आदर्शों के पीछे तुम अपने जीवन के घाव छिपा लेते हो। हिंसक, अहिंसक बनने की कोशिश में लगे रहते हैं। कभी बनते नहीं, बन सकते नहीं। क्योंकि अहिंसक बनने का एक ही उपाय है-और वह है : हिंसा को परिपूर्ण रूप से स्वीकार कर लेना। क्रोधी करुणा की चेष्टा करते रहते हैं कभी नहीं बन सकते। हो सकता है ऊपर-ऊपर आवरण ओढ़ लें, पाखंड रच लें, लेकिन बन नहीं सकते। कामी ब्रह्मचर्य की चेष्टा में लगे रहते हैं। जितना कामी पुरुष होगा उतना ही ब्रह्मचर्य में आकर्षित होता है। क्योंकि ब्रह्मचर्य के आदर्श में ही छिपा सकता है अपनी कामवासना की कुरूपता को, और तो कोई उपाय नहीं। आज तो गलत है, कल अच्छा हो जाऊंगा-इस आशा में ही तो आज को जी सकता है; नहीं तो आज ही जीना मुश्किल हो जाएगा। मैं तुमसे कहता हूं : कल है ही नहीं; तुम जो आज हो, वही तुम हो। इसको समग्र– भावेन, इसको परिपूर्णता से अंगीकार कर लेते ही तुम्हारे जीवन से वंद्व विसर्जित हो जाता है। तुम जो हो हो, अन्यथा हो नहीं सकते; द्वंद्व कहां? चुनाव कहां? जैसे तुम हो, वैसे हो। यही तुम्हारा होना है। प्रभु ने तुम्हें ऐसा ही चाहा है। इस घड़ी प्रभु को तुम्हारे भीतर ऐसी ही घटना घटाने कीआकांक्षा है। इस घड़ी समस्त जीवन तुम्हें ऐसा ही देखना चाहता है। ऐसे ही आदमी की जरूरत है। तुम्हारे भीतर यही विधि है, यही भाग्य है। 'मुझ अंतहीन महासमुद्र में विश्व-रूपी नाव अपनी प्रकृत वायु से इधर-उधर डोलती है। ' कभी क्रोध बन जाती, कभी करुणा बन जाती; कभी काम, कभी ब्रह्मचर्य; कभी लोभ, कभी दान-इधर-उधर, इतस्तत:! मुझे लेकिन असहिष्णुता नहीं है। मैं इससे अन्यथा चाहता नहीं। इसलिए मुझे कुछ करने को नहीं बचा है। गया कृत्य। अब तो मैं बैठ कर देखता हूं कि लहर कैसी उठती है। भ्रमति स्वांतवातेन.। भटक रही अपनी ही हवा से। न कहीं जाना, नहीं मुझे कुछ होना। कोई आदर्श नहीं है, कोई लक्ष्य नहीं है। अब तो मैं बैठ गया। अब तो मैं मौज से देखता हूं। सब असहिष्णुता खो गई। जब तुम कहते हो मैं क्रोधी हूं और मुझे अक्रोधी होना है तो इसका अर्थ समझे? तुम क्रोध के कारण बहुत असहिष्णु हो रहे हो। तुम क्रोध को धैर्य के साथ स्वीकार नहीं कर हे। तुम बड़े अधैर्य में हो। तुम कहते हो, 'क्रोध और मैं! मुझ जैसा पवित्र पुरुष और क्रोध करे -नहीं, यह बात जंचती नहीं। मुझे क्रोध से छुटकारा चाहिए! मुझे मुक्त होना है! मैं उपाय करूंगा, यम-नियम साधूंगा, आसन-व्यायाम करूंगा, धारणा – ध्यान करूंगा, मुझे लेकिन क्रोध से मुक्त होना है!' तुमने अधैर्य बता दिया। तुमने कह दिया कि जो है, तुम उसके साथ राजी नहीं, तुम कुछ और चाहते हो। बस वहीं से तुम अशांत होने शुरू हुए।
SR No.032110
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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