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से मत देखो। जिंदगी को अपेक्षाओं के ढंग से मत देखो। जैसी जिंदगी है उसे देखो और बीच में अपनी आकांक्षा को मत लाओ। और तब तुम अचानक पाओगे. सांप खो गया, रस्सी पड़ी रह गई। फिर उससे भय भी पैदा नहीं होता, जख्म भी नहीं लगते, हार भी नहीं होती, पराजय भी नहीं होती, विषाद भी नहीं होता। और उससे तुम्हारे भीतर उस दीए का जलना शुरू हो जाएगा, जिसको अष्टावक्र साक्षीभाव कह रहे हैं।
दुख को देखो। सुख को चाहो मत, दुख को देखो।
दो ही तरह के लोग हैं दुनिया में, सुख को चाहने वाले लोग, और दुख को देखने वाले लोग। जो सुख को चाहता है वह नये-नये दुख पैदा करता जाता है, क्योंकि हर सुख की आकांक्षा में नये दुख का जन्म है। और जो दुख को देखता है, दुख विसर्जित हो जाता है। और दुख के विसर्जन में सुख का आविर्भाव है।
मैं फिर से दोहरा दूं : दो ही तरह के लोग हैं, और तुम्हारी मर्जी जिस तरह के लोग तुम्हें बनना हो बन जाना।
सुख को मांगो, दुख बढ़ता जाएगा। क्योंकि सुख मिलता ही नहीं, मांगने से मिलता ही नहीं इसलिए दुख बढ़ता जाता है। फिर जितना दुख बढ़ता है, उतना ही तुम सुख की मांग करते हो उतना ही ज्यादा दुख बढ़ता है। पड़े एक दुष्टचक्र में, जिसके बाहर आना मुश्किल हो जाएगा। इसी को तो ज्ञानियों ने संसार-चक्र कहा है- भवसागर! बड़ा सागर बनता जाता है, क्योंकि जैसे-जैसे तुम्हारा दुख बढ़ता है, तुम सोचते हो : और सुख की खोज करें। और सुख की खोज करते हो, और दुख बढ़ता है। अब इसका कहीं पारावार नहीं, इसका कोई अंत नहीं। भवसागर निर्मित हुआ।
दूसरे तरह के लोग हैं, जो दुख को देखते हैं। दुख है, ठीक है। इससे विपरीत की आकांक्षा करने से क्या सार है? इसे देख लें : यह कहां है, क्या है, कैसा है? दुख तथ्य है तो इसके प्रति जाग जाएं। तुम इसका छोटा-मोटा प्रयोग करके देखो। जब भी तुम उदास हो, दुखी हो, बैठ जाओ शांत अपने कमरे में। रहो दुखी! वस्तुत: जितने दुखी हो सको उतने दुखी हो जाओ। अतिशयोक्ति करो। तिब्बत में एक प्रयोग है. अतिशयोक्ति। ध्यान का गहरा प्रयोग है। वे कहते हैं, जिस चीज से तुम्हें छुटकारा पाना हो, उसकी अतिशयोक्ति करो, ताकि वह पूरे रूप में प्रगट हो जाये, .ऐसा मंद-मंद न हो। तुम दुखी हो रहे हो, बंद कर लो द्वार-दरवाजे, बैठ जाओ बीच कमरे के और हो जाओ दुखी, जितने होना है। तडुफो, आह भरो, चीखो; लोटना-पोटना हो जमीन पर, लोटो-पोटो; पीटना हो अपने को, पीटो-लेकिन दुख की अतिशयोक्ति करो। दुख को उसकी पूरी गरिमा में उठा दो, दुख की आग जला दो। और जब दुख की आग भभक कर जलने लगे, धू-धू करके जलने लगे, तब बीच में खड़े हो कर देखने लगो : क्या है, कैसा है दुख 2: इस दुख के साक्षी हो जाओ।
तुम चकित हो जाओगे, तुम हैरान हो जाओगे कि तुम्हारे साक्षी बनते ही दुख दूर होने लगा, तुम्हारे और दुख के बीच फासला होने लगा, तुम साक्षी बनने लगे, फासला बड़ा होने लगा। तुम और भी साक्षी बनने लगे, फासला और बड़ा होने लगा। और जैसे-जैसे फासला बड़ा होने लगा, सुख की