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पड़ी हुई संभावनाएं हैं कहीं भीतर सरकती हुई गुंजाइश है इनमें अंकुरण हो सकता है। हम अपने ही ढंग से समझते हैं, कुछ भी कहा जाए। मैं तुमसे कह रहा हूं जितने लोग यहां हैं, उतनी बातें पैदा हो जाएंगी। मैं तो एक ही हूं कहने वाला, लेकिन जितने लोग यहां हैं उतनी बातें पैदा हो जाएंगी। लोग अपने ढंग से समझते हैं।
मुल्ला नसरुद्दीन के बेटे से मेरी बात हो रही थी। छोटा बच्चा है, उसने अचानक मुझसे पूछा कि आप एक बात बताएं। आप सबके सवाल का जवाब देते हैं, मेरे सवाल का जवाब दें। आदमी जब मरता है तो उसकी जान कहां से निकलती है?
छोटे बच्चे अक्सर ऐसी बात पूछ लेते हैं। मैं भी थोड़ा चौंका। मैंने उससे पूछा, तुझे पता है कहां से निकलती है? वह हंसने लगा। उसने कहा, मुझे पता है। मैंने कहा, तो पहले तू बता दे। उसने कहा...... खिड़की से निकलती है।
मैंने उससे पूछा, अच्छा यह कैसे ? तुझे कैसे पता चला?
उसने कहा, एक दिन मैंने देखा कि पापा (अर्थात मुल्ला नसरुद्दीन) एक दिन मैंने देखा कि पापा जब खिड़की के पास खड़े थे, नीचे सड़क से कोई लड़की निकल रही थी तो वे बोले, ठहरो मेरी जान! तभी मैंने समझा कि जान खिड़की से निकल जाती है।
छोटा बच्चा है, उसने ठीक समझा, जहां तक समझ सकता था बिलकुल ठीक समझा। हम वही समझते हैं जो हम समझ सकते हैं। जनक ऐसा समझा जैसा जनक समझ सकता है। जनक की समझ बड़ी असाधारण है, बड़ी विशिष्ट है। वह साधारण व्यक्ति की समझ नहीं है। अष्टावक्र को भी थोड़ा-सा रहा होगा कि पता नहीं, जनक समझ पायेगा कि नहीं समझ पायेगा । स्वाभाविक भी है, क्योंकि यह घटना इतनी बड़ी है, यह ऊंचाई इतनी बड़ी है, यहां तक कोई चढ़ पायेगा कि नहीं चढ़ पायेगा!
'सुख और दुख जिसके लिए समान हैं।
खयाल रखना, तुम अगर चेष्टा करो तो सुख और दुख समान हो सकते हैं। और फिर भी तुम बंधन में रहोगे। जीवन और मृत्यु भी समान हो सकती हैं- मान्यता के आधार पर। तुम अपने को समझा ले सकते हो, तुम अपने को सम्मोहित कर ले सकते हो, कि सब समान है। लेकिन इससे कोई... कोई महंत घटना न घटेगी जो तुम्हें बदल जाए और तुम्हें नये अर्थ और नये अभिप्राय और नये आकाश दे जाए।
जनक ने कहा.. I
अब जनक के सूत्र हैं। ये बड़े अनूठे सूत्र हैं। ऐसा लगता है जैसे जनक की गहराई में उतर कर अष्टावक्र ने कहे होंगे। ऐसा लगता है कि जैसा अष्टावक्र चाहते होंगे, ठीक वैसा जनक ने प्रत्युत्तर दिया। ऐसा शिष्य पाना दुर्लभ है।
जनक ने कहा, 'मैं आकाश की भांति हूं। संसार घड़े की भांति प्रकृति-जन्य है, ऐसा ज्ञान है। इसलिए न इसका त्याग है, और न ग्रहण है, और न लय है। '