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बड़ी क्रांति की बात कही जनक ने! नाच उठे होंगे अष्टावक्र। माना कि उनका शरीर आठ जगह से टेढ़ा था, लेकिन इस क्षण रुक न सके होंगे, नाचे होंगे। यह तो परम कमल खिला, सहस्रार खिला।
आकाशवदनंतोग्ह घटवत् प्राकृत जगत्। मैं हूं आकाश की भांति। संसार तो घड़े की भांति है बनता और मिटता रहता है। आकाश पर इसका कोई परिणाम नहीं है। संसार उठते हैं, बनते हैं, मिटते हैं; जैसे सपने बनते, उठते, मिटते हैं। लेकिन साक्षी तो आकाश जैसा शुद्ध बना रहता है। मुझे कोई चीज अशुद्ध कर ही नहीं सकती-इसकी घोषणा की जनक ने। इसलिए आप यह तो बात ही छोड़ दें कि मैं शुद्ध हो कर और मुक्ति को प्राप्त हो जाऊं। मैं कभी अशुद्ध हुआ ही नहीं।
माना कि दूध में पानी मिलाया जा सकता है, क्योंकि दूध और पानी दोनों ही एक ही ढंग के पदार्थ हैं। तुम तेल में पानी को तो न मिला सकोगे। फिर भी तेल और पानी को साथ-साथ तो किया ही जा सकता है; मिलें न मिलें, एक ही बोतल में भरा तो जा ही सकता है। क्योंकि दोनों फिर भी पदार्थ हैं। लेकिन आकाश को तो तुम किसी चीज से भी मिला नहीं सकते। आकाश तो शुद्ध निर्विकार
इस पृथ्वी पर कितने लोग पैदा हुए-अच्छे-बुरे, पुण्यात्मा-पापी; कितने युद्ध हुए कितने प्रेम घटे; कितने वसंत आए पतझड़ हुए-आकाश तो निर्विकार खड़ा रहता। कोई रेखा नहीं छूट जाती। आकाश में तो कोई आकार नहीं बनता।
इति ज्ञानं! -यह बड़ी अदभुत बात है।
जनक कहते हैं : मैं आकाशवत हूं। इति ज्ञानं। यही ज्ञान है। अब और किस ज्ञान की आप मुझसे कह रहे हैं कि मैं ज्ञान को पा लूं ज्ञान को खोज लं? ज्ञान हो गया! इति ज्ञान!
तथैतस्य न त्यागो न ग्रहों लयः। सारे आध्यात्मिक साहित्य में ऐसा सूत्र तुम न खोज सकोगे। ऐसे तो बहुत से शास्त्र हैं जो कहते हैं. न भोग है न त्याग है। लेकिन जनक कहते हैं. न भोग है, न त्याग है, न मोक्ष; लय भी नहीं है। यह तीसरी बात सोचने जैसी है।
'मैं आकाश की भांति हूं। संसार घड़े की भांति प्रकृति-जन्य है।'
घड़े बनते-मिटते रहते हैं। घड़ा जब बन जाता है तो घड़े के भीतर आकाश हो जाता है, घड़े के बाहर हो जाता है। घड़ा फूट जाता है, भीतर का आकाश बाहर का आकाश फिर एक हो जाते हैं। शायद जब घड़ा बना रहता है तब भी बाहर और भीतर के आकाश अलग नहीं होते। क्योंकि घड़ा पोरस है, छिद्रों से आकाश जुड़ा हुआ है। आकाश छिन्न-भिन्न नहीं होता, खंडित नहीं होता। तुम तलवार से आकाश को काट तो नहीं सकते। सब सीमाएं काल्पनिक हैं, बनाई हुई हैं। आकाश पर कोई रेखा खिंचती नहीं।
मैं आकाश की भांति हूं-ऐसा ज्ञान है। इति ज्ञानं! इसलिए न इसका त्याग है, न इसका ग्रहण