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अखोडा ९ प्रमार्जना) इस प्रकार मुहपति की २५ प्रमार्जना समझना ॥२०॥ पायाहिणेण तिअ तिअ, वामेअर बाहु सीस मुह हियए; अंसुड्डाहो पिढे, चउ छप्पय देह-पणवीसा ॥ २१ ॥
प्रदक्षिणा के अनुसार प्रथम बाँये हाथ की फिर दाहिने हाथ की, मस्तक की, मुख की और हृदय की तीन तीन प्रतिलेखना करना । बाद में दोनो स्कंधों के ऊपर तथा नीचे पीठ की प्रमार्जना करना, ये चार प्रतिलेखना पीठकी और उसके बाद ६ प्रतिलेखना दोनो पाँवो की, इस प्रकार पच्चीस प्रतिलेखना समजना ॥२१॥ आवस्सएसु जह जह, कुणइ पयत्तं अहीण-मइरित्तं; तिविह-करणोवउत्तो, तह तह से निज्जरा होइ ॥ २२ ॥
जो जीव गुरुवंदन के पच्चीस आवश्यकों (तथा उपलक्षण से मुहपत्ति और शरीर की पच्चीस प्रतिलेखना के विषय में) के विषय में तीन प्रकार के करणों से (मनवचन-काया-द्वारा) उपयुक्त - उपयोगवन्त होकर जैसे जैसे अन्यूनाधिक (न्युन भी नहीं अधिक भी नहीं इस तरह यथाविधि) प्रयत्न करे, वैसे जीवों की कर्म निर्जरा अधिक अधिक होती है । (उपयोग रहित अविधि से हीनाधिक करे तो वैसे मुनि को भी विराधक समझना ।) ॥२२॥
भाष्यत्रयम्