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दोवणय - महाजायं, आवत्ता बार चउसिर तिगुत्तं; दुपवेसिग निक्खमणं, पणवीसावसय किईकम्मे ॥ १८ ॥
२ अवनत, १ यथाजात, १२ आवर्त्त, ४ शीर्ष, ३ गुप्ति, २ प्रवेश, और १ निष्क्रमण (निर्गमन) इस प्रकार द्वादशाव वंदन में २५ आवश्यक हैं ॥१८॥
किइकम्मंपि कुणतो, न होइ किईकम्म- निज्जरा - भागी; पणवीसा - मन्नयरं, साहू ठाणं विराहंतो ॥ १९ ॥
गुरु वंदन करते हुए साधु ( उपलक्षण से साध्वी, श्रावक, श्राविका भी) इन पच्चीस आवश्यको में से किसी भी एक आवश्यक की विराधना करने पर भी (जैसे वैसे करने से ) वंदन से होने वाली कर्मनिर्ज्जरा के फल के भागी नहीं होते है, (याने कर्म निर्जरा के भागी नही बनते है ।) भावार्थ:सुगम है ॥१९॥
दिट्ठि - पडिलेह एगा, छ उड्ड-पप्फोड तिग-तिगंतरिआ; अक्खोड पमज्जणया, नव नव मुहपत्ति पणवीसा ॥२०॥
दृष्टि प्रतिलेखना, ६ ऊर्ध्व पप्फोड़ा, और तीन तीन के अंतर में ९ आस्फोटक, तथा ९ प्रमार्जना ( अर्थात् तीन तीन आस्फोटक के अंतर में तीन तीन प्रमार्जना अथवा तीन तीन प्रमार्जना के अंतर में तीन तीन आस्फोटक मिलकर ९
श्री गुरूवंदन भाष्य
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