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दोस अणाढि थड्डअ, पविद्ध परिपिंडिअं च टोलगईं; अंकुस कच्छभ - रिंगिअ, मच्छुव्वत्तं मणपउट्टं ॥ २३ ॥ वेइयबद्ध भयंतं, भय गारव मित्त कारणा तिन्नं; पडिणीय रुट्ठ तज्जिअ, सढ हीलिअ विपलिउं - चिययं ॥२४॥ दिट्ठमदिट्टं सिंगं, कर तम्मोअण अणिद्धणालिद्धं; ऊणं उत्तरचूलिअ, मूअं ढड्डर चुडलियं च ॥ २५ ॥
अनाहत (अनादर दोष) स्तब्धदोष, प्रविध्ध दोष, परिपिंडित दोष, टोलगति दोष, अंकुश दोष, कच्छपरिंगित दोष, मत्स्योदवृत्त दोष, मनः प्रदुष्ट दोष, वेदिकाबध्ध दोष, भजन्त दोष, भय दोष, गारव दोष, मित्र दोष, कारण दोष, स्तेन दोष, प्रत्यनीक दोष, रुष्ट दोष, तर्जित दोष, शठ दोष, हीलित दोष, विपरिकुंचित दोष, दृष्टादृष्ट दोष, शृंग दोष, कर दोष, करमोचन दोष, आश्लिष्ट दोष, अनाश्लिष्ट दोष, ऊन दोष, उत्तरचुड, दोष, मूक दोष, ढढ्ढर दोष, और चुडलिक दोष, (इन बत्तीस दोषों को टालकर गुरुवंदन - द्वादशावर्त्त वंदन करना) ||२३|| ||२४|| ||२५||
बत्तीसदोस- परिसुद्धं, किईकम्मं जो पउंजइ गुरूणं; सो पावइ निव्वाणं, अचिरेण विमाणवासं वा ॥ २६ ॥
जो साधु (साध्वी, श्रावक या श्राविका ) गुरु को बत्तीस दोष से रहित अत्यंत शुद्ध कृतिकर्म ( द्वादशावर्त्त वंदन) करे
श्री गुरूवंदन भाष्य
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