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महाभारत
जन्म से ब्राह्मण थे, किन्तु कर्म से क्षत्रिय थे। धर्मव्याध और तुलाधर ब्राह्मण नहीं थे, परन्तु धर्मशास्त्र के प्रामाणिक आचार्य थे। यद्यपि वैराग्य भाव और परमात्मभक्ति को मुख्यता दी जा रही थी तथा वैदिक यज्ञों का महत्त्व कम हो रहा था, तथापि वैदिक यज्ञ और तपस्या का प्रचार था । जनमेजय, द्रुपद और यधिष्ठिर आदि के द्वारा किए गए वैदिक यज्ञ तथा अर्जुन की तपस्या से यह सिद्ध होता है । राजकुमारों को धनुर्विद्या की शिक्षा दी जाती थी । राजतन्त्र राजकीय प्रथा थी । द्यूत यद्यपि दुर्गुणों में माना जाता था, परन्तु यह प्रचलित था। स्वयम्वर की प्रथा थी । धनुर्विद्या में विशेषज्ञता से व्यक्ति योग्य पति होता था । राज-परिवारों में बहुविवाह की प्रथा थी। स्त्रियाँ पर्दा करती थीं। कुछ स्त्रियाँ पति के साथ सती भी होती थीं। महाभारत में मतियों और मन्दिरों का उल्लेख नहीं है । विन्ध्यपर्वत के दक्षिण में चोल, पाण्ड्य, चेर, आन्ध्र आदि शिक्षित जातियाँ रहती थीं। दक्षिण भारत की यात्रा के समय अर्जुन कावेरी नदी के किनारे मनलूर नामक ग्राम में पहुँचे और वहाँ पर पाण्ड्य राजा की पुत्री से विवाह किया। महाभारत युद्ध के समय एक पाण्ड्य राजा पाण्डवों की ओर से लड़ा था । युधिष्ठिर ने जो राजसूय यज्ञ किया था, उसमें दक्षिण भारत, चीन, फ़ारस तथा अन्य विदेशों के भी राजा आए थे । महाभारत के युद्ध में भो यवनों ने भाग लिया था । दुर्योधन के आदेश पर पुरोचन नामक म्लेच्छ ने लाक्षागृह बनाया था । इस प्रकार महाभारत प्राचीन भारतवासियों के धार्मिक और लौकिक जीवन के विषय में बहमूल्य सूचनाओं से परिपूर्ण है । यह एक महाकाव्य है, धर्मशास्त्र है और मोक्षशास्त्र है ।
हरिवंश महाभारत का ही परिशिष्ट है । इसके भी रचयिता व्यास हैं। इसमें १६४०० श्लोक हैं । इसके तीन भाग हैं । उनके नाम हैं--(१) हरिवंशपर्व, इसमें कृष्ण के पूर्वजों का वर्णन है । (२) विष्णुपर्व, इसमें कृष्ण
और उनके जीवनचरित का वर्णन है । (३) भविष्यपर्व, इसमें भविष्य के विषय में भविष्य-वाणियाँ हैं।