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संस्कृत साहित्य का इतिहास मंगलाचरण श्लोक में विष्णु के अवतार कृष्ण की स्तुति की गई है ।' (३) शान्तिपर्व में भीष्म का उपदेश वैष्णवों के धार्मिक विचारों का समर्थन करता है । (४) पाण्डवों के सहायक कृष्ण हैं, अतः वे युद्ध में विजयी हुए। अद्वैतवाद के मुख्य संस्थापक शंकराचार्य ने इसको धर्मशास्त्र माना है । भारतवर्ष तथा इसके बाहर भी ५वीं शताब्दी ई० के बाद में लिखे गए शिलालेखों में महाभारत को दाताओं की समृद्धि तथा पापियों को दण्ड देने के विषय में प्रामाणिक ग्रन्थ माना गया है।
श्रेण्यकाल का भारतीय साहित्य महाभारत के द्वारा बहुत प्रभावित हुआ है। मीमांसा शास्त्र के व्याख्याताओं में प्रमुख कुमारिल भट्ट (६००-६६० ई०) ने महाभारत का उल्लेख किया है और इसके कई पर्वो से श्लोक भी उद्धृत किए हैं । संस्कृत गद्य के प्रमुख लेखक बाण भट्ट (७वीं शताब्दी ई० ) तथा सुबन्ध (८वीं शताब्दी ई०) ने महाभारत के पात्रों और उपाख्यानों की तुलना तथा अन्य अलंकारों के प्रयोग के लिए उपयोग किया है। बाण ने कादम्बरी में महाभारत के पारायण का भी उल्लेख किया है । कम्बोज (कम्बोडिया) के ६०० ई० के शिलालेखों से ज्ञात होता है कि मन्दिरों को महाभारत की दो प्रतियाँ दी गई थीं और यह प्रबन्ध किया गया था कि वहाँ पर इसका दैनिक पाठ हो । इसका ६६६ ई० में जावा की भाषा में अनुवाद हुआ।
महाभारत अपने समय के सामाजिक जीवन पर बहुत प्रकाश डालता है। पैतृक परम्परा का आदर होता था । ब्राह्मणों को आदरणीय माना जाता था। उस समय तक गुणों को ही गौरव का चिह्न माना जाता था । व्यावहारिक दृष्टि से कर्ण सारथी का पुत्र था, किन्तु जातिगत विचार के आधार पर उसकी धनुर्विद्या की विशेषज्ञता को न्यून नहीं किया गया। जन्म से जाति प्रथा को पूर्णतया नहीं माना जाता था। दासी के पुत्र विदुर उस समय सम्मानित राजनीतिज्ञ थे । द्रोण
१. नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम् ।
देवी सरस्वतीं चैव ततो जयमुदीरयेत ।।