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संस्कृत साहित्य का इतिहास
विव्यास वेदान् यस्मात् स तस्मात् व्यास इति स्मृतः ।
महाभारत, आदिपर्व ६४- १३० वे कौरवों और पांडवों के समकालीन थे । दोनों के जीवन से संबद्ध घटनाओं से वे साक्षात् परिचित थे । उन्होंने पांडवों और कौरवों का वास्तविक और सजीव वर्णन किया है । ऐसा वर्णन साक्षात् द्रष्टा व्यक्ति ही कर सकता है । संजय आदि पात्रों को बिना किसी भूमिका के ही वर्णन में स्थान दिया गया है, क्योंकि वे सभी सुपरिचित व्यक्ति थे । इस प्रकार महाभारत स्वप्रत्यक्ष पर आधारित है । इसकी भाषा गंभीर, सरल और प्रभावोत्पादक है । इससे ज्ञात होता है कि महाभारत के समय में संस्कृत बोलचाल की भाषा थी ।
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इस समय जो महाभारत प्राप्त है, उसमें कतिपय अंश आर्ष गद्य में लिखे हुए हैं । उनकी संख्या २० है । इनमें से ३ आदिपर्व में, ७ वनपर्व में, ७ शान्तिपर्व में और '३ अनुशासनपर्व में हैं । इनमें से अधिकांश उपाख्यान हैं और महर्षियों के द्वारा वर्णित हैं । पाश्चात्त्य विद्वानों ने इन अंशों की आ पद्धति के कारण महाभारत को रामायण से प्राचीन माना है । महाभारत में रामायण की घटनाओं का अनेक स्थानों पर उल्लेख है । इससे यह मानना पड़ेगा कि पूर्वोक्त आर्ष गद्य के अंश बहुत प्राचीन समय में लिखे गये थे और उनको वैशम्पायन आदि इसमें सम्मिलित कर लिया था ।
महाभारत के आदिपर्व में निम्नलिखित श्लोक प्राप्त होते हैं । इनका ठीक अर्थ बहुत से विद्वानों ने नहीं समझा है ।
मुनिगूढं कुतूहलात् । मुनिद्वैपायनस्त्वदम् ॥
अष्टौ श्लोकशतानि च । संजयो वेत्ति वा न वा ॥ ग्रथितं सुदृढं मुने । गूढत्वात् प्रश्रितस्य च ॥
ग्रन्थग्रन्थि तदा चक्रे यस्मिन प्रतिज्ञया प्राह अष्टौ श्लोकसहस्राणि अहं वेद्मि शुको वेत्ति तच्छ्लोककूटमद्यापि भेत्तुं न शक्यतेऽर्थस्य
महाभारत आदि० १. ११६-११