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________________ ६० संस्कृत साहित्य का इतिहास ( ८५० ई० ) ने स्पष्ट रूप से उल्लेख किया है कि वाल्मीकि ने राम और सीता के वियोग - पर्यन्त रामायण को रचना का है । वे लिखते हैं कि- रामायणे हि करुण रसः स्वयमादिकविना सूत्रितः । ' शोकः श्लोक त्वमागतः ' इत्येवंवादिना । निर्व्यूढश्च स रामसीतात्यन्तवियोगपर्यन्तमेव स्वप्रबन्धमुपरचयता । ध्वन्यालोक, अध्याय ४ श्रानन्दवर्धनाचार्य के कथन को विशेष रूप से युक्तियुक्त मानना उचित है, क्योंकि वे उच्च कोटि के आलोचक थे । वे निराधार परम्परा को प्रमाण रूप में न मानते । अतएव वाल्मीकि को संपूर्ण रामायण का रचयिता मानना उचित है । पाश्चात्त्य आलोचकों का रामायण में प्रक्षिप्त अंश का जो विचार है, उसके विषय में यह कथन है कि जिस प्रकार महाभारत में कथाएं बाद में मिश्रित की गई हैं, उस प्रकार रामायण में कथाएँ बाद में मिश्रित नहीं की गई हैं, क्योंकि रामायण में कथाएँ अपने उचित स्थान पर हैं और महाभारत में इस प्रकार उचित स्थान पर नहीं हैं । वाल्मीकि राम को अवतार के रूप में नहीं मानते थे, यह सिद्ध नहीं किया जा सकता है, क्योंकि भारतवर्ष में काव्य का जन्म धार्मिक वातावरण में हुआ है | आदिकाल में धार्मिक भावना और देवी परिस्थितियों ने भारतीय काव्य को एक विशिष्ट स्वरूप दिया है । रामायण के अध्ययन से ज्ञात होता है कि वाल्मीकि राम के अवतार होने में विश्वास रखते थे । यह स्वीकार करने पर भी कि रामायण के मुख्य भाग में राम को अवतार सिद्ध करने वाले श्लोक उपलब्ध नहीं होते हैं, यह स्वीकार करना असंगत प्रतीत होता है कि रामायण का एक वृहत भाग प्रक्षिप्त है, क्योंकि उसमें कुछ श्लोक राम को अवतार रूप में मानने वाले हैं । ऐसे श्लोक बहुत थोड़े हैं । यह संभव है कि संपूर्ण रामायण को राम के दैवी स्वरूप का समर्थक सिद्ध किया जाय । इसका निर्णय बहुत कुछ पाठक के भावों पर निर्भर है |
SR No.032058
Book TitleSanskrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorV Vardacharya
PublisherRamnarayanlal Beniprasad
Publication Year1962
Total Pages488
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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