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संस्कृत साहित्य का इतिहास
होता है कि ये उचित प्रसंग में ही रखी गई हैं और इनके समावेश से कोई अस्वाभाविकता प्रतोत नहीं होती है । मुख्य अंश में ये कथाएँ इसलिए नहीं रखी गई हैं, क्योंकि वहाँ पर इनकी आवश्यकता नही थी । इस विषय में यह स्वीकार करना उचित है कि रामायण में प्रक्षेप हैं और विशेष रूप से उत्तरकाण्ड में । इस कथन की पुष्टि भारतीय टीकाकारों द्वारा होती है । उन्होंने स्पष्ट रूप से उल्लेख किया है कि कुछ सर्ग प्रक्षिप्त हैं । अतएव उन्होंने उनकी टीका नहीं की है ।
दूसरी बात के विषय में यह वक्तव्य है कि संक्षेप रामायण में उतना ही अंश है, जितना वाल्मीकि ने नारद से सुना है । तृतीय सर्ग में जो विषयमुची है, वह वाल्मीकि के द्वारा बनाए हुए पूरे ग्रन्थ की विषयसूची है । इस वात का कोई प्रमाण नहीं है कि वाल्मीकि ने रामायण का उतना ही अंश बनाया है, जितना कि उन्होंने नारद से सुना है, और उससे अधिक कुछ नहीं । संक्षेपरामायण में 'राम के जीवन की भावी घटनाओं का भी उल्लेख है । इममें राम के द्वारा किए गए अश्वमेध का भी उल्लेख है । अतः बालकाण्ड में दो विषयसूची होने में कोई असंगति नहीं है । संक्षेप रामायण में उत्तरकाण्ड के विषयों का निर्देश मात्र है और दूसरी विषयसूची में उत्तरकाण्ड की घटनाओं का विस्तृत वर्णन है । युद्धकाण्ड के अन्त में जो आशीर्वादात्मक श्लोक हैं, वे वहाँ पर इसलिए हैं कि जो व्यक्ति रामायण का दैनिक पारायण लौकिक सुख-समृद्धि के लिए करते हैं, वे युद्धाण्ड के अन्त में इस प्रकार के श्लोक चाहते हैं, क्योंकि उसकी समाप्ति सुखान्त है । उत्तरकाण्ड का अन्त दुःखान्त है, अतः कोई भी उसके अन्त तक पारायण करना नहीं चाहता है ।
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रामायण के अध्ययन से ज्ञात होता है कि बालकाण्ड के प्रथम चार सर्ग भूमिका के रूप में हैं । इनका कौन लेखक है, यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता है । इनके लेखक संभवतः एक से अधिक व्यक्ति हैं । वाल्मीकि के शिष्य, जो उनके साथ रहते थे, इन सर्गों के लेखक ज्ञात होते हैं । उन्होंने
१. रामायण, बालकाण्ड, १ - - ६४, ६५ ।