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वेदाङ्ग
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पुष्पसूत्र और पंचविधसूत्र तथा अथर्ववेद का प्रातिशास्यसूत्र है, इसका दूसरा नाम चातुरध्यायिका है । इनमें से कुछ के लेखक अज्ञात हैं। इन प्रातिशाख्यों में स्पष्ट संकेत है कि किस प्रकार इनसे व्याकरण सम्बन्धी अध्ययन का प्रारम्भ और विकास हुआ। ___ इनके अतिरिक्त इस विषय पर छोटे ग्रन्थ हैं, जिनको शिक्षा कहते हैं । इनके लेखक साधारणतया भरद्वाज, व्यास, वसिष्ठ, याज्ञवल्क्य आदि हैं। इनका सम्बन्ध किसी विशेष प्रातिशाख्य से है । इनमें से एक व्यासशिक्षा है जिसका सम्बन्ध तैत्तरीय प्रातिशाख्य से है । ___ व्याकरण वेद का एक अंग है. क्योंकि वेदों के शब्दों का ठीक अर्थ न ज्ञात होने पर उनका ठीक अध्ययन और अर्थज्ञान नहीं हो सकता है । अप्टाध्यायी पर अपनी व्याख्या करते हुए वररुचि ने एक वार्तिक लिखा है--'रक्षोहागमलघ्वसन्देहाः प्रयोजनम्' पतंजलि ने इस वार्तिक की व्याख्या करते हुये उदाहरणों के साथ व्याकरण के अध्ययन के लाभ दिए हैं। व्याकरण के अध्ययन का प्रारम्भ प्रातिशाख्यों से होता है । प्रारम्भिक काल में संज्ञाशब्दों की उत्पत्ति के विषय में वैयाकरणों के सर्वथा विपरीत दो मन्तव्य थे। शाकटायन का मत था कि सभी संज्ञा-शब्द धातुओं से बने हैं। यास्क और पाणिनि इसी मत को मानते हैं । गार्य तथा कुछ अन्य वैयाकरणों का मत है कि सभी संज्ञा-शब्द धातुओं से नहीं बने हैं, जिनमें धातु और प्रत्यय बताए जा सकते हैं, वे ही धातुज हैं । दुर्भाग्यवश इन लेखकों के ग्रन्थ इस समय प्राप्य नहीं हैं । व्याकरण पर सबसे प्राचीन ग्रन्थ पाणिनि की अष्टाध्यायी है । उसने अपने पूर्ववर्ती वैयाकरण पुष्करसादि, शाकटायन,' सेनक, शाकल्य' तथा अन्यों का नामोल्लेख किया है। पाणिनि के इस ग्रन्थ के द्वारा ही उससे पूर्ववर्ती आचार्यों के मतों का ज्ञान होता है । पाणिनि ने यह व्याकरण वैदिक भाषा और अपने समय में बोलचाल में प्रचलित 'भाषा' अर्थात् संस्कृत भाषा
१. अष्टाध्यायी ८-४-५०, २. अष्टाध्यायी ५-४-११२, ३. अष्टाध्यायी ८-४-५१ ।