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संस्कृत साहित्य का इतिहास
छान्दोग्य, माण्डूक्य, तैत्तिरीय, ऐतरेय, मैत्रायणीय और कौणीतकि उपनिषदें ब्राह्मण ग्रन्थों के तुल्य गद्य में हैं । ईश, कठ, श्वेताश्वतर, मुण्डक और महानारायणीय उपनिषदें पद्य में हैं। कैंन और प्रश्न उपनिषदों का कुछ भाग गद्य में है और कुछ पद्य में है ।
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भाषा और भावों की दृष्टि से यह माना जाता है कि प्रश्न मंत्रायणीय और माण्डूक्य उपनिषदें बाद की रचना हैं और ऐतरेय, बृहदारण्यक, छांदोग्य, तैत्तिरीय, कौषीतकि और केन उपनिषदें सबसे प्राचीन काल की उपनिषदें हैं ।
इन १४ उपनिषदों के अतिरिक्त और भी उपनिषदें हैं । उनमें से कुछ बहुत प्राचीन और कुछ बहुत नवीन हैं । वेदान्त के प्रमुख आचार्यों ने इनमें कुछ की टीका की हैं तथा कुछ के उद्धरण अपने ग्रन्थों में दिए हैं। इन उपनिषदों में से बहुत से धार्मिक भावना से युक्त हैं । उनमें दार्शनिक भाव बहुत कम हैं । सब मिलाकर कुल १०८ उपनिषदें हैं । इस १०८ में उपर्युक्त १४ उपनिषदें भी हैं । विषय की दृष्टि से इन उपनिषदों को ६ भागों में बाँट सकते हैं- (१) वेदान्त के सिद्धान्तों पर निर्भर - २४, (२) योग के सिद्धान्तों पर निर्भर –२०, (३) सांख्य के सिद्धान्तों पर निर्भर - - १७, (४) वैष्णवसिद्धातों पर निर्भर -- १४, (५) शैव- सिद्धान्तों पर निर्भर - १५ और (६) शाक्त तथा अन्य सिद्धान्तों पर निर्भर -- १८ । विभिन्न विषयों पर इतनी छोटी उपनिषदों के उद्भव का कारण यह है कि सभी धर्मों और मतों के अनुयायियों का यह प्रयत्न रहा है कि उनके विचारों का प्रतिनिधित्व करने वाली स्वतन्त्र उपनिषद् होनी चाहिए ।
उपनिषदों की प्रमुख विशेषता यह है कि उनमें से अधिकांश का सम्बन्ध किसी वेद से है । उनमें से कुछ का सम्बन्ध किसी एक ही वेद से है । उनमें से बहुत-सी उपनिषदें ऐसी भी हैं, जिनका वेदों के मन्त्रों से कोई साक्षात् सम्बन्ध नहीं है । प्रत्येक उपनिषद् का किसी वेद से सम्बन्ध स्थापित करने का परिणाम यह हुआ कि सभी वेदों के साथ कुछ उपनिषदें सम्बद्ध की गई हैं ।