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उपनिषद्
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पृथक् अपना अस्तित्व नहीं समझता है । मृत्यु के स्वरूप को जानकर मनुष्य जीवात्मा पर अधिकार कर सकता है । आत्मचिन्तन ब्रह्म और जीव के वास्तविक स्वभाव के अनुभव में सहायक होता है । श्वेताश्वतरोपनिषद् में ऋषि श्वेताश्वतर ने अपने आश्रम के व्यक्तियों को जो उपदेश दिया है, उसका वर्णन है । इस उपनिषद् का उद्देश्य यह है कि सांख्य योग और वेदान्त के सिद्धान्तों में समन्वय स्थापित किया जाय । इसमें माया, जीवात्मा और ब्रह्म के पारस्परिक सम्बन्ध का भी वर्णन किया गया है । मैत्रायणीयोपनिषद् का सम्बन्ध कृष्ण यजुर्वेद की मैत्रायणीय शाखा से है । ईशोपनिषद् वाजसनेयीसंहिता का ८०वाँ अध्याय ही है । इसका कथन है कि तत्त्वज्ञानी व्यक्ति आत्मा को सर्वत्र देखता है और ग्रात्मा में सब कुछ देखता है । छान्दोग्योपनिषद् का सम्बन्ध सामवेद की ताण्ड्य शाखा से है । यह उपदेश रूप में है । इसमें ऋषि उद्दालक और उनके पुत्र श्वेतकेतु के कई संवाद हैं । इसमें सर्वव्यापी परमात्मा का विवेचन किया गया है। केनोपनिषद् का सम्बन्ध सामवेद की तलवकार शाखा से है । इसका कथन है ब्रह्म ही पूर्ण है । ब्रह्म ही संसार की समस्त शक्तियों का आदि स्रोत है । ब्रह्म का स्वभाव ज्ञात और अज्ञात सभी वस्तुओं से सर्वथा पृथक् है | मुण्डक, प्रश्न और माण्डूक्य उपनिषदों का सम्बन्ध अथर्ववेद से है । वास्तविक रूप से ये तीनों उपनिषदें वेद की किमी शाखा से सम्बद्ध नहीं हैं । मुण्डक का कथन है कि ईश्वर सारे जीवों के हृदय में विराजमान रहता है । ज्ञान दो प्रकार का है, परा परा का सम्बन्ध ब्रह्मज्ञान से है और अपरा का सम्बन्ध वेदों के प्रश्नोपनिषद् में प्रश्न और उत्तर हैं । छः विद्यार्थी पिप्पलाद ऋषि से प्रश्न करते हैं और वह उनका उत्तर देते हैं । इस उपनिषद् में प्रकृति की उत्पत्ति, प्राण की उत्पत्ति, जीवन की तीन अवस्थाएँ -- जाग्रत्, स्वप्न और सुपुप्ति; प्रोम् का ध्यान आदि का वर्णन किया गया है । माण्डूक्य में ब्रह्म
और अपरा ।
ज्ञान से है ।
निर्वचनीयता का वर्णन किया गया है ।
प्रायः सभी उपनिषद् ब्राह्मण और प्रारण्यक ग्रन्थों के संलग्न रूप में हैं । तैत्तिरीय और महानारायणीय उपनिषद् में स्वर-चिह्न हैं । बृहदारण्यक,