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संस्कृत साहित्य का इतिहास
आनन्द को प्राप्त करता है । इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए उपनिषदों में ईश्वर, जीव और प्रकृति के स्वरूप का वर्णन किया गया है और उनके पारस्परिक सम्बन्ध का रूप बताया गया है। व्यक्तिगत आत्मा को जीव और आत्मा कहा गया है। ईश्वर को ब्रह्म और परमात्मा नाम से सम्बोधित किया गया है । उपनिषदों में कर्मकाण्ड का खण्डन या निषेध नहीं किया गया है । उनका मत है कि आवश्यक यज्ञ आदि ज्ञान-प्राप्ति के केवल साधन हैं । मोक्ष की प्राप्ति केवल ज्ञान से ही होती है ।
ऐतरेय उपनिषद् का सम्बन्ध ऋग्वेद से है । इसमें सृष्टि की उत्पत्ति का वर्णन है और बताया गया है कि तात्त्विक ज्ञान से ही जीवात्मा आवागमन के बन्धन से मुक्त होकर मोक्ष प्राप्त कर सकता है । कोषोतक्युपनिषद् का भी सम्बन्ध ऋग्वेद से है । इसमें आत्मज्ञान का वर्णन है । बृहदारण्यकोपनिषद् का सम्बन्ध शुक्ल यजुर्वेद से है । इसमें जीवात्मा के जीवन के प्रारम्भ के विषय में विवेचन है और जीव के भय और आनन्द का विस्तृत वर्णन है। इसमें ईश्वरचिन्तन की आवश्यकता पर बहुत अधिक बल दिया गया है । इसमें आत्मा के स्वभाव और आत्म-प्राप्ति के साधन विषय पर ऋषि याज्ञवल्क्य और राजा जनक आदि का संवाद भी दिया हुआ है। तैत्तिरीयोपनिषद् का सम्बन्ध तैत्तिरीय संहिता से है । इसमें वरुण और उसके पुत्र भृगु के संवाद के रूप में ब्रह्म के स्वभाव का वर्णन किया गया है । महानारायणीयोपनिषद् का दूसरा नाम याज्ञिकोपनिषद् है । इसका सम्बन्ध कृष्ण यजुर्वेद की तैत्तिरीय शाखा से है । कठोपनिषद् और श्वेताश्वतरोपनिषद् का भी सम्बन्ध तैत्तिरीय शाखा से है। इनमें से प्रथम में दो अध्याय हैं और प्रत्येक में तीन वल्ली (अध्याय) हैं। इसमें यम और नचिकेता का संवाद है । यम ने नचिकेता को ब्रह्म का उपदेश दिया है । इसमें जीवात्मा से वास्तविक स्वरूप, ब्रह्म-ज्ञान के साधन और दोनों के सम्बन्ध का वर्णन किया गया है। जीवात्मा अज्ञान के कारण शरीर से
१. Preface VII. Translation of the Thirteen Principal Upanisads by Robert Ernest Hume.