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अध्याय ६
उपनिषद्
जो व्यक्ति कर्मकाण्ड में वणित विधियों को करते हैं, वे स्वर्ग को जाते हैं और निश्चित समय के पश्चात् पृथिवी पर लौट आते हैं। स्वर्ग स्थायी आनन्द का स्थान नहीं है । अतः जो शाश्वत आनन्द चाहते हैं उन्हें सांसारिक विषयों से अपने मन को क्रमशः हटाना होता है । प्रारण्यक-ग्रन्थ शाश्वत आनन्द के इच्छुक व्यक्तियों के लिए प्रारम्भिक शिक्षाएँ देते हैं। इसके बाद अगली स्थिति तब आती है, जब विवेकात्मक ज्ञान की आवश्यकता होती है, जिसके द्वारा ज्ञान मार्ग के प्रारम्भिक सिद्धान्तों का महत्त्व ज्ञात हो सके। ज्ञान-मार्ग के सिद्धान्त अन्य गौण सिद्धान्तों से सर्वथा भिन्न हैं । मनुष्य-जीवन में ज्ञान-मार्ग पर प्रवृत्ति का महत्त्व उपनिषदों में वर्णन किया गया है । वे ज्ञानकाण्ड का प्रतिनिधित्व करते हैं । मृत्यु के पश्चात् जीवात्मा अपने कर्मों के अनुसार अन्य जीवन को प्राप्त होता है। इस प्रकार के जीवन की परम्परा जीवात्मा को बन्धन में डाले रखती है और वह अगले जीवन में भी भौतिक सुख के लिए निरन्तर कर्मरत रहता है। उपनिषदों में इन बातों का वर्णन है और वे भौतिक वाद की ओर से अपनी आत्मा को रोकने में सहायक होते हैं । अतः उपनिषदों में जीवात्मा के पुनर्जन्म के सिद्धान्त की उत्पत्ति और विकास प्राप्त होता है । "उपनिषदों में दो विभिन्न सिद्धान्तों का वर्णन मूर्त उदाहरणों और सैद्धान्तिक निर्देशों के साथ दिया हुआ है । जीवन का एक मार्ग अज्ञान, संकीर्ण भावना और स्वार्थ से पूर्ण है, जिसके द्वारा मनुष्य अस्थायी, अपूर्ण और अवास्तविक आनन्द को चाहता है। दूसरा मार्ग वह है, जिसके द्वारा वह परमात्मा से सम्बन्ध स्थापित करता है और सामान्य जीवन के दुखों से मुक्त होकर अनन्त
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