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वैदिक संहिताएँ, ब्राह्मण-ग्रन्थ और आरण्यक-ग्रन्थ
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सामवेद संहिता में अधिकांश मन्त्र ऋग्वेद के हैं। इस वेद में केवल ७५ मन्त्र अपने हैं, शेष सब मन्त्र ऋग्वेद के हैं। इस वेद में १,८१० मन्त्र हैं । इनमें से बहुत से कई बार पाए हैं । ये दो भागों में विभक्त हैं, (१) अाचिक अर्थात् ऋचाओं का संग्रह, ( २ ) उत्तराचिक अर्थात् उत्तरार्ध की ऋचाओं का संग्रह । पुनरावृत्ति वाले मन्त्रों को छोड़ने पर पूर्वार्ध में ५८५ मन्त्र हैं और उत्तरार्ध में ४०० मन्त्र । उत्तरार्ध में मन्त्रों के संग्रह में इस बात का व्यान रखा गया है कि एक छन्द वाले मन्त्र एक स्थान पर रहें, एक देवता वाले मन्त्र एकत्र हों, जिस यज्ञ में जिन मन्त्रों का गान होता है, वे एक स्थान पर हों। इस संहिता में गान-सम्बन्धी बहुत-सी पुस्तकें हैं, इनको गण कहते हैं । इनमें मन्त्रों के गान के समय मात्राओं को दीर्घ या प्लुत करना, पुनरावृत्ति या अन्य परिवर्तनों के लिए नियम दिए गए हैं । यह कहा जाता है कि प्रारम्भ में इसकी एक सहस्र शाखाएँ थीं। इस समय केवल तीन शाखाएँ उपलब्ध हैं। उनके नाम हैं--राणायनीय, कौथुम और जैमिनीय, इसका दूसरा नाम तलवकार भी है। प्रथम और तृतीय संहिताएँ प्राप्त होती हैं परन्तु द्वितीय का केवल सप्तम अध्याय प्राप्त होता है, शेष अंश नष्ट हो गया है ।
अथर्ववेद को अथर्वाङ्गिरा, भृग्वङ्गिरा और ब्रह्मवेद भी कहते हैं । पाश्चात्य आलोचकों का कथन है कि अथर्वा शब्द का अभिप्राय है-मन्त्र-प्रयोग जिसके द्वारा रोगों को दूर किया जा सकता है और इस प्रकार यह शब्द रचनात्मक उद्देश्य के लिए है । अंगिरा शब्द हानिकारक और विनाशात्मक कार्यों के लिए है । अथर्वा शब्द का अर्थ है पुरोहित और मन्त्रादि के प्रयोग में सिद्ध व्यक्ति । अथर्ववेद की दो शाखाएँ प्राप्त होती हैं-शौनक और पप्पलाद । इनमें से प्रथम अधिक प्रचलित है और दूसरे की केवल एक हस्तलिखित प्रति प्राप्त होती है । प्रथम में ७३१ सूक्त हैं और २० काण्ड हैं। पूरे ग्रन्थ का भाग गद्य में है।