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___ संस्कृत साहित्य का इतिहास यजुर्वेद में ऋग्वेद के बहुत से मन्त्र हैं। साथ ही उनकी वैदिक यज्ञों से संबद्ध व्याख्या गद्य में है । अतः यह वेद कुछ पद्यात्मक है और कुछ गद्य रूप में है । पतंजलि ने इसकी १०१ शाखाओं का उल्लेख किया है। इनमें से अधिकांश अब अप्राप्य हैं।
यजुर्वेद की दो शाखाएँ हैं -शुक्ल यजुर्वेद और कृष्ण यजुर्वेद । प्रथम शाखा को शुक्ल यजुर्वेद इसलिए कहा गया, क्योंकि इसमें मन्त्र ठीक क्रम से रखे गए हैं। इसको शुक्ल यजुर्वेद इसलिए भी कहा जाता है, क्योंकि परम्परा के अनुसार इसको सूर्य ने प्रकट किया है। दूसरी शाखा को कृष्ण यजुर्वेद इसलिए कहते हैं, क्योंकि इसके मन्त्रादि ठीक क्रमबद्ध नहीं हैं। शुक्ल यजुर्वेद में वैदिक यज्ञों के समय बोले जाने वाले मन्त्र ही हैं, किन्तु कृष्ण यजुर्वेद में मन्त्रों के साथ ही यज्ञ-विषयक विचार-विनिमय भी हैं। _शुक्ल यजुर्वेद-संहिता को वाजसनेयी-संहिता भी कहते हैं। इसकी दो शाखाएँ प्राप्त होती हैं-काण्व और माध्यन्दिन । दोनों में बहुत थोड़ा अन्तर है। इसमें ४० अध्याय हैं। इनमें से १५ बाद में सम्मिलित किए गए माने जाते हैं। भारतीय परम्परा के अनुसार २६ से ३५ तक के अध्याय खिल अध्याय (बाद में मिलाए गए) माने जाते हैं । इस वेद में वाजपेय, राजसूय, अश्वमेध, सर्वमेध आदि प्रमुख यज्ञों का वर्णन है । अन्तिम अध्याय में ईशोपनिषद् है।
- कृष्ण यजुर्वेद की चार शाखाएँ हैं। १. काठकसंहिता, २. कापिष्ठल कठसंहिता, यह अपूर्ण प्राप्त होती है, ३. मैत्रायणी संहिता, इसका दूसरा नाम कालाप संहिता है, ४. तैत्तिरीय संहिता, दक्षिण भारत में इसके अनयायी 'अधिक हैं। तैत्तिरीय संहिता की दो शाखाएँ हैं--प्रापस्तम्ब और हिरण्यकेशी । इन दोनों में अन्तर केवल यज्ञिय-विधि सम्बन्धी है। प्रारम्भिक तीन शाखाओं का एक सामूहिक नाम 'चरक' है । पतञ्जलि ने प्रथम और ततीय शाखा को प्रचलित बताया है । वाल्मीकि का कथन है कि अयोध्या में इनका बहत आदर था । तृतीय शाखा में चार काण्ड और चतुर्थ में सात काण्ड हैं।