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संस्कृत साहित्य का इतिहास
प्राचीन प्राचार्य माने जाते । इस मत का विकास शैवमत के विकास के साथ घनिष्ट रूप से संबद्ध है । ऐसा ज्ञात होता है कि श्रीकण्ठ ने यह प्रयत्न किया कि शैवधर्म को उपनिषदों के सिद्धान्तों से संबद्ध किया जाय । श्रीकण्ठ का समय और निश्चित परिचय अज्ञात है । श्रीकण्ठ ने ब्रह्मसूत्रों का भाष्य किया है । वह भाष्य श्रीकण्ठभाष्य ही कहा जाता है । वह शैव आगमों को वेदों के तुल्य ही प्रामाणिक मानता है । उसने इस मत के तीन सिद्धान्तों का उल्लेख किया है -- ( १ ) पति (शिव), (२) पशु (जीव) र (३) पाश ( बन्धन) । अप्पयदीक्षित (लगभग १६०० ई० ) ने इस मत को बहुत बड़ी देन दी है । उसने श्रीकण्ठभाष्य की टीका शिवार्कमणिदीपिका नाम से की है। उसने भारततात्पर्य संग्रह ग्रन्थ लिखा है । इसमें महाभारत का संक्षेप दिया है और महाभारत की इस प्रकार व्याख्या की है कि वह शैवमत का समर्थक सिद्ध हो । इसी प्रकार रामायणतात्पर्य-संग्रह में रामायण की शैवमतानुकूल व्याख्या की है । उसके शिवाद्वैत मत के समर्थक अन्य ग्रन्थ ये हैं-- रत्नत्रयपरीक्षा, शिखरिणीमाला, शिवाद्वैत निर्णय, तत्त्वसिद्धान्तव्याख्या और नयमणिमाला |
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मत की धार्मिक शाखाएं,
पाशुपत, शैव, कश्मीरी शैवमत और शाक्तमत
कुछ ऐसे भी धार्मिक समुदाय हैं, जो कि सर्वथा ग्रागम-ग्रन्थों पर ही निर्भर हैं। पाशुपत, शैव और कश्मीरी शैवमत शैव ग्रागमों पर निर्भर हैं । शक्ति-सम्प्रदाय शाक्त आगमों पर निर्भर है । शैव आगमों की संख्या २= नानी जाती है और शाक्त आगमों की संख्या ७७ । ये दोनों आगम घनिष्ठ रूप से संबद्ध है । शैव-आगम शिव को सर्वोत्तम पूज्य देवता मानते हैं और गावतआगम शक्ति को विश्व की माता मानते हैं । दोनों ग्रागमों का पृथक् साहित्य है श्रौर दोनों में पारस्परिक प्रभाव भी दृष्टिगोचर होता है । चारों सम्प्रदायों में से प्रत्येक में बहुत कुछ बातें समान पाई जाती हैं ।