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आस्तिक दर्शन और धार्मिक दर्शन
संन्यासी हो गए और उन्होंने अपना नाम श्रीकृष्ण चैतन्य रक्खा । इनका स्वर्गवास १५३३ ई० हुआ । इनके मतानुसार भक्ति का स्थान ज्ञान और योग दोनों के ऊपर है । कृष्ण और राधा की पूजा के समय जो भक्तिभाव उत्पन्न होता है, उसे इस मत के अनुसार रस माना जाता है । भागवत पर श्रीधर की टीका से चैतन्य बहुत प्रभावित हुए थे । ऐसा प्रतीत होता है कि इस मत के सिद्धान्तों का निर्माण जयदेव के गीतगोविन्द और विशिष्टाद्वैत मत के भक्तिमार्ग के आधार पर हुआ है ।
चैतन्य ने अपने उपदेशों के समर्थन के लिए कोई साहित्यिक रचना नहीं छोड़ी है । शिक्षाष्टक का रचयिता चैतन्य को माना जाता है । इसमें चैतन्यमत की शिक्षाओं का संग्रह है । सनातनगोस्वामी, चैतन्य के शिष्यों में से एक था । उसने दो ग्रन्थ लिखे हैं - ( १ ) भागवत की टीका वैष्णवतोषिणी और (२) बृहद्भागवतामृत । रूपगोस्वामी, सनातनगोस्वामी का छोटा भाई और चैतन्य का शिष्य था । उसने ये ग्रन्थ लिखे हैं -- ( १ ) अपने बड़े भाई के बृहद्भागबतामृत के अनुकरण पर लघुभागवतामृत और ( २ ) भक्तिरस पर भक्तिरसामृतसिन्धु । उसने इनके अतिरिक्त और बहुत से ग्रन्थ लिखे हैं । वे अलंकार, सुभाषितावली, गीतिकाव्य और नाटक आदि के अन्तर्गत आते हैं । जीवगोस्वामी ने भागवतसंदर्भ में रहस्यात्मक और तन्त्वमीमांसात्मक सिद्धान्तों का वर्णन किया है । गोपालभट्ट ने कर्मकाण्ड और धार्मिक कृत्यों के विषय में हरिभक्तिविलास ग्रन्थ लिखा है । कृष्णदास कविराज ने सनातन गोस्वामी, रूपगोस्वामी और जीवगोस्वामी के जीवन के विषय में चैतन्यचरितामृत, प्रेमविलास और गोविन्दलीलामृत ग्रन्थ लिखे हैं । बलदेव विद्याभूषण ने १८वीं शताब्दी ई० में इस मत के मन्तव्यों को लक्ष्य में रखते हुए ब्रह्मसूत्रों की टीका गोविन्दभाष्य नाम से की है ।
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शिवाद्वैत मत
शिवाद्वैत मत का कथन है कि शिव सर्वोच्च देवता है । इसके अतिरिक्त यह मत विशिष्टाद्वैतमत के ही अनुकूल है । श्रीकण्ठ इस मत के सबसे