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________________ ४०६ संस्कृत साहित्य का इतिहास ही हैं । जीव और ब्रह्म में जो अन्तर दिखाई देता है, वह वास्तविक नहीं है, अपितु वह अन्तर ब्रह्म की इच्छा के कारण है । यह अन्तर अद्वैत मत के तुल्य माया के कारण नहीं है। अतः इस मत में माया की सत्ता न होने से इसे शुद्धाद्वैतमत कहा जाता है । ब्रह्म अपनो स्वतन्त्र इच्छा से जोवों को अपने शरीर के तुल्य दिव्य शरीर प्रदान करता है, जिससे वे ब्रह्म के साथ सदा क्रीड़ा किया करें। ईश्वर और जीव का सम्बन्ध नायक-नायिकाभाव (पतिपत्नीभाव) सम्बन्ध है । भक्ति और आत्म-समर्पण से ब्रह्म का अनुग्रह प्राप्त होता है। इस मत में ब्रह्म को पूजा कृष्ण के रूप में होती है । उसके नाम गोपीजनवल्लभ और श्रीगोवर्धननाथ जी या श्रीनाथ जी हैं। देखिए : जानीत परमं तत्त्वं यशोदोत्सङ्गलालितम् । तदन्यदिति ये प्राहुरासुरास्तानहो बुधाः ।। ब्रह्मसूत्रानुभाष्य ४-४-२२ इस मत में गुरु को देवतुल्य माना जाता है और उसको देवतुल्य पूजा को जाती है । यह मत वेद, भगवद्गीता और उपनिषद् तथा भागवत को प्रानाणिक ग्रन्थ मानता है । जीवात्मा भागवत के निम्नलिखित सात प्रकार के अर्थों को जानने से मुक्त होता है । भागवत के सात ज्ञातव्य अर्थ ये हैं--शाखा, स्कन्ध, प्रकरण, अध्याय, वाक्य, पद और अक्षर ।। वल्लभाचार्य (१४७३-१५३१ ई०) इस मत के संस्थापक हैं । उन्होंने ब्रह्मसूत्रों को टीका अणुभाष्य नाम से की है। उन्होंने इस भाष्य को अपूर्ण छोड़ दिया था। उनके पुत्र विट्ठलनाथ जी ने उसे पूर्ण किया । वल्लभाचार्य ने भागवत की सुबोधिनी टीका लिखी है । उन्होंने १६ छोटे ग्रन्थ लिखे हैं । इनमें उन्होंने शद्धाद्वैतमत के सिद्धान्तों और शिक्षाओं का संक्षिप्त विवेचन किया है । वल्लभाचार्य के शिष्य पुरुषोत्तम ने अणुभाष्य की टीका भाष्यप्रकाश नाम से की है और भाष्यप्रकाश की टीका गोपेश्वर ने रश्मि नाम न की है। पुरुषोत्तम ने शुद्धाद्वैतमत के दार्शनिक मन्तव्यों पर एक स्वतन्त्र अन्य वेदान्ताधिकरणमाला लिखा है । श्रीजयगोपाल ने तैत्तिरीयोपनिषद् की
SR No.032058
Book TitleSanskrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorV Vardacharya
PublisherRamnarayanlal Beniprasad
Publication Year1962
Total Pages488
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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