________________
आस्तिक दर्शन और धार्मिक दर्शन
४०७ । टीका लिखी है । कृष्णचन्द्र ने ब्रह्मसूत्रों की टीका भावप्रकाशिका नाम से की है।
निम्बार्कमत इस मत की स्थापना १२वीं शताब्दी ई० में निम्बार्क ने की थी। इस मत के अनुसार ब्रह्म सगुण और निर्गुण दोनों है । संसार ब्रह्म की अभिव्यक्ति मात्र है । संसार ब्रह्म से अभिन्न और पृथक् दोनों है । संसार में जीव .
और प्रकृति दोनों का संग्रह है। इस प्रकार यह मत अद्वैत और द्वैत दोनों मानने के कारण द्वैताद्वैत मत कहा जाता है । जीव, जो कि ब्रह्म के नियन्त्रण में हैं, मुक्तावस्था में भी उससे अभिन्न और पृथक् दोनों रूपों में रहते हैं। ब्रह्म के वास्तविक रूप के साथ तादात्म्य प्राप्त करने को मोक्ष कहते हैं। मोक्ष की प्राप्ति ज्ञान और प्रात्म-समर्पण से होती है । इस मत के अनुसार ब्रह्म की उपासना कृष्ण और राधा के रूप में की जाती है । इस मत को सनकसम्प्रदाय भी कहते हैं।
निम्बार्क ने ब्रह्मसूत्रों की टीका वेदान्तपारिजातसौरभ नाम से की है। निम्बार्क के शिष्य श्रीनिवास ने इस वेदान्तपारिजातसौरभ की टीका की है। निम्बार्क ने द्वैताद्वैत मत पर दशश्लोकी ग्रन्थ भी लिखा है। केशवाचार्य(लगभग १६०० ई०) का दूसरा नाम केशव कश्मीरी था। उसने ये ग्रन्थ लिखे हैं--(१) ब्रह्मसूत्रों की टीका कौस्तुभप्रभा, (२) भगवद्गीता की टीका तत्त्वप्रकाशिका, (३) मुख्य उपनिषदों की टीका और (४) विष्णुसहस्रनाम आदि की टोका।
भास्करमत भास्कर, शंकर (६३२-६६४ ई०) का उत्तरवर्ती तथा वाचस्पति मिश्र . (८५० ई०) का पूर्ववर्ती है । अतः उसका समय ८०० ई० के लगभग है। उसका मत है कि ब्रह्म विशुद्ध गुणों से युक्त है । साथ ही वह उपाधि के कारण बद्ध और मुक्त दोनों है । दुर्गुणों से पूर्ण संसार के रूप में परिवर्तित