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आस्तिक दर्शन और धार्मिक दर्शन
होता है । विशष्टाद्वैत मत में रामानुज के बाद वह ही सबसे प्रामाणिक आचार्य माना जाता है । उसके पुत्र वरदाचार्य ने उसकी मीमांसापादुका की टीका की है ।
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अप्पयदीक्षित ( लगभग १६०० ई० ) ने विशिष्टाद्वैतमत का अनुसरण करते हुए ब्रह्मसूत्रों की टीका नयमयूखमालिका नाम से की है । महाचार्य ( लगभग १६०० ई० ) अप्पयदीक्षित का समकालीन था । उसने वेदान्तदेशिक की शतदूषणी की टीका चण्डमारुत नाम से की। उसने ६ खण्डनात्मक ग्रन्थ लिखे हैं-- (१) श्रद्वैतविद्याविजय, (२) गुरूपसत्तिविजय, (३) परिकर - विजय (४) पाराशर्य - विजय ( ५ ) ब्रह्मविद्याविजय और ( ६ ) सद्विद्याविजय । लगभग इसी समय रंगरामानुज मुनि हुआ था । उसको मुख्य उपनिषदों पर भाष्य करने के कारण उपनिषद्भाष्यकार की उपाधि प्राप्त हुई थी । उसने दो टीकाएँ लिखी हैं -- (१) वेदान्तदेशिक के न्यायसिद्धाञ्जन की टीका और ( २ ) सुदर्शनसूरि की श्रुतप्रकाशिका की टीका भावप्रकाशिका | विषयवाक्यदीपिका उसका एक स्वतन्त्र ग्रंथ है । इनमें उपनिषदों के कुछ महत्त्वपूर्ण वाक्यों की व्याख्या है । महाचार्य के शिष्य श्रीनिवासाचार्य ने यतीन्द्रमतदीपिका ग्रंथ में विशिष्टाद्वैत मत के सिद्धान्तों का वर्णन किया है ।
शुद्धाद्वैत-मत
इस मत के अनुसार ब्रह्म सगुण और निर्गुण दोनों प्रकार का है । वह संसार का कर्त्ता, धर्ता और संहर्ता है । सत्, चित् और आनन्द उसके गुण हैं । वह एक और अनिर्वचनीय है, वह जीवात्मा में अन्तर्यामी रूप से विद्यमान है । वह जगत् का उपादान और निमित्त कारण है । वह पूर्ण है । उसे पुरुषोत्तम कहा जाता है । वह आनन्दमय है । इन रूपों में वह सगुण है । उसमें साधारण मानवीय कोई गुण नहीं हैं, अतः उसे निर्गुण कहा जाता है । जीव वास्तविक हैं । वे ब्रह्म के एक अंश हैं । वे ब्रह्मरूपी अग्नि के कण के तुल्य हैं । जीवात्मा परमाणु-तुल्य होता है । जीव ब्रह्म के ब्रह्म से पृथक नहीं हैं । वे आनन्दमय ब्रह्म भी हैं । अतः जीव
अंश हैं, अतः वे और ब्रह्म एक