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पाश्चात्य विद्वानों के विचारों की समीक्षा
इन टीकानों के अध्ययन से ज्ञात होता है कि वेदों की परम्परागत व्याख्या का क्रम अविच्छिन्न नहीं रहा है। तथापि इन भाष्यकारों ने अपनी पूर्ण योग्यता के अनुसार वेदों को व्याख्या का प्रयत्न किया है । जहाँ पर वे अपनो व्याख्या से संतुष्ट नहीं थे, वहाँ पर वे अन्य व्याख्या भी देते हैं। ये भाष्यकार उन वैदिक विद्वानों के वंशज हैं, जिन्होंने वेदों का अध्ययन और मनन किया था तथा वेदोक्त पद्धति से यज्ञों को करते थे । अतएव वैदिक शब्दों से पूर्णतया परिचित थे और वैदिक साहित्य के विशेषज्ञ थे । वेद के मन्त्रों के अर्थ ठीक जानने के कारण वे वेद के भाष्य के पूर्ण अधिकारी थे। अतएव वे वैदिक परम्परा के विश्वसनीय व्याख्याता हैं । उदाहरणार्थ-- सायण ने वेदभाष्य को भूमिका में वेदों और उनकी व्याख्या के संबंध में बहत-सी बहुमल्य बातें बताई हैं। उसने उन समालोचकों की युक्तियों का भी उल्लेख किया है, जो वेदों पर विश्वास नहीं रखते थे, अतएव वेद के भाष्य को भी व्यर्थ समझते थे। सायण ने उनकी युक्तियों का उत्तर बहुत हृदयंगम रूप से दिया है और अन्त में वेदों के अध्ययन
और उनकी व्याख्या के महत्व पर बल दिया है। वैदिक मन्त्रों की व्याख्या में उसने मीमांसा-दर्शन के सिद्धांतों के ज्ञान का भी पूर्ण उपयोग किया है । वेदों के अर्थ को ठीक जानने के लिए इन सिद्धान्तों का जानना आवश्यक है । उसने वेद के ६ अंगों से भी बहुमूल्य सहायता प्राप्त की है ।* अन्य भाष्यकारों के भाष्यों में भी वैदिक-साहित्य के विषय में बहुत सी बहुमूल्य बात प्राप्त होती हैं। इन भाष्यों को सारहीन नहीं कहा जा सकता है । इन भाष्यों की सहायता के बिना पाश्चात्य विद्वान् भो वेदों के अर्थ तथा वैदिक परम्परा को समझने में असमर्थ रहते।
पाश्चात्य विद्वानों ने वेदों की जो व्याख्या की है, उससे लक्ष्य की सिद्धि नहीं होती है, क्योंकि उन्होंने वैदिक परम्परा का उल्लेख करने वाले इन भाष्यों
*--वेद के ६ अंग ये हैं--१. शिक्षा (ध्वनि-विज्ञान), २. व्याकरण, ३. छन्द, ४. निरुक्त (वैदिक शब्दों का निर्वचन), ५. ज्योतिष, ६. कल्प (यज्ञों की विधि)।