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संस्कृत साहित्य का इतिहास
नहीं मानते और न वेदों के विभिन्न भागों को विभिन्न समयों में लिखा हुआ मानते हैं ।
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समाख्यानं प्रवचनाद् वाक्यत्वं तु पराहृतम् । तत्कर्त्रनुपलम्भेन स्यात् ततोsपौरुषेयता |
जैमिनीयन्यायमाला १-२-८
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जहाँ तक वेदों की व्याख्या का सम्बन्ध है, यह मानना पड़ता है कि वेदों की व्याख्या का परम्परागत रूप अविच्छिन्न नहीं है । कितने ही विद्वान् हुए हैं जिन्होंने वेदों के अर्थ को स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है । यास्क ( ८०० ई० पू० ) ने वैदिक शब्दों के निर्वचन के रूप में निरुक्त ग्रंथ लिखा है । उसका कथन है कि उससे पूर्व वेदों की व्याख्या करने वाले १७ विद्वान् हो चुके हैं । इनमें से कोई भी ग्रंथ उसको प्राप्य नहीं थे । वैदिक शब्दों की व्युत्पत्ति देते हुए यास्क ने कतिपय स्थानों पर एक से अधिक भी व्युत्पत्ति दी है और इसके द्वारा वैदिक शब्दों की व्याख्या के लिए उसने अपना हार्दिक प्रयत्न भी प्रकाशित किया है । इससे स्पष्ट है कि यास्क परम्परागत वेदों की व्याख्या के विषय में पूर्णतया ` असन्दिग्ध नहीं थ । यास्क के पश्चात् वेदों के कई भाष्यकार हुए हैं । ऋग्वेद का भाष्य स्कन्दस्वामी (६०० ई०), माधव भट्ट ( 8 वीं शताब्दी ई०) वेंकटमाधव ( ११ वीं शताब्दी ई०) श्रानन्दतीर्थ, सायण, भट्ट भास्कर, षड्गुरुशिष्य, स्वामी दानंद आदि ने किया है। शुक्ल यजुर्वेद का भाष्य सातवीं शदाब्दी में हरिस्वामी ने नवीं शताब्दी में उदय ने ११ वीं शताब्दी में उब्बर ने, सायण ने, महीधर ने, जिसका दूसरा नाम महीदास है तथा स्वामी दयानंद आदि ने किया हैं । कृष्ण यजुर्वेद का भाष्य भट्ट भास्कर और सायण आदि ने किया है । सामवेद का भाष्य सायण, माधव, भरतस्वामी, आदि ने किया है और अथर्ववेद का भाष्य सायण आदि ने किया है । सायण १४ वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में हुआ था । सायण ही अकेला ऐसा विद्वान् है, जिसने चारों वेदों का भाष्य किया है । अन्य विद्वानों ने एक वेद का या वैदिक साहित्य के किसी एक अंश का भाष्य किया है । सायण का लिखा हुआ वेदार्थप्रकाश नामक भाष्य तथा कुछ अन्य विद्वानों के लिखे हुए भाष्य आजकल पूर्णतया प्राप्त हैं और कुछ अपूर्ण रूप में प्राप्य हैं ।