________________
संस्कृत साहित्य का इतिहास
की ओर पूर्ण ध्यान नहीं दिया है और स्वतन्त्र रूप से मन्त्रों का अर्थ किया है । भारतीय भाष्यकारों की सहायता के बिना वेदों के शब्दों का वास्तविक अर्थ नहीं जाना जा सकता है । संस्कृत में एक ही शब्द विभिन्न स्थानों पर एक से अधिक अर्थों में प्रयोग में आता है । अतः वैदिक साहित्य के विद्यार्थी को परम्परागत वैदिक व्याख्या पर निर्भर होना पड़ता है । वेदों के अध्ययन की जो ऐतिहासिक पद्धति है, वह भी पूर्ण संतोषजनक नहीं है, क्योंकि वह भारतीय भाष्य की व्याख्याओं पर पूर्ण ध्यान नहीं देती है । अतः वेद के मन्त्रों का जो वास्तविक अर्थ लेना चाहिए, वह नहीं लिया जाता है और जो अभीष्ट अर्थ नहीं है वह मान लिया जाता है । इसके अतिरिक्त पाश्चात्य विद्वानों ने रामायण, महाभारत और पुराणों की ओर भी पूरा ध्यान नहीं दिया है और इनको काल्पनिक कहकर छोड़ दिया है । वस्तुतः इनके विषय वेदों पर आधारित हैं । ये ग्रन्थ वेदों के सहायक ग्रन्थ के रूप में है । अतएव इन सहायक ग्रन्थों की सहायता के बिना वेदों की व्याख्या से वास्तविक अर्थ ज्ञात नहीं हो सकता है । वेदों के अध्ययन की वही ऐतिहासिक पद्धति वेदार्थ को स्पष्ट कर सकती है, जिसका आधार सायण के भाष्य, रामायण, महाभारत, पुराण, ६ वेदांग तथा मीमांसा के सिद्धान्त हैं । इस पद्धति पर कई भारतीय विद्वानों ने वेदों का अध्ययन प्रारम्भ किया है ।
३०
पाश्चात्य विद्वानों ने वेदों की उत्पत्ति तथा वैदिक काल के व्यक्तियों के मूल निवास स्थान के विषय में जो निष्कर्ष निकाले हैं, वे भी पूर्णतया ठीक नहीं हैं । उनका यह कथन है कि ३००० ( तीन सहस्र ) ई० पू० में फारस तथा उसके समीपवर्ती प्रदेशों से कुछ जातियाँ भारतवर्ष में आईं और इसका आधार उन्होंने ज़ेन्दप्रवेस्ता और वेद में प्राप्य कुछ समान वाक्य और शब्द माने हैं, जो दोनों स्थानों पर प्रायः एक अर्थ में हैं । साधारणतया कहा जा सकता है कि दो भिन्न भाषाओं में पाए जाने वाले एक प्रकार के वाक्य आदि इस बात को पुष्ट करते हैं कि इन दोनों भाषाओंों को बोलने वाले या तो एक ही
* -- इतिहासपुराणाभ्यां वेदं समुपबृंहयेत् । महाभारत, आदिपर्व १ - २६३