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संस्कृत साहित्य का इतिहास
वर्णन दिया गया है । योग का लक्ष्य है आत्मा को कैवल्य-प्राप्ति । मन, बुद्धि और अहंकार के कार्यों पर नियन्त्रण करने का विचार भी कठिन है और उनका अभ्यास करना कठिन है।
जिन कठिनाइयों पर ध्यान करने वाला व्यक्ति नियन्त्रण नहीं कर सकता उन्हीं के कारण ध्यान को विधि में बाधा उपस्थित हो सकती है । अतः ईश्वर-चिन्तन के लिए एक क्रमिक साधन बताया गया है इन बात्राओं को दूर करना । ईश्वर सर्वज्ञ है। जो उसकी सुरक्षा को खोज करना है उसको वह सहायता करता है । वह संसार का स्रष्टा नहीं है । योगसूत्र के टीकाकारों के अनुसार द्रव्य ( वस्तुएँ ) ईश्वर को इच्छा पर विकसित होते हैं। यह योगसूत्रभाष्य के रचयिता व्यास का कथन है । वुद्धि के व्यापारों को नियंत्रित करने के लिए आठ निर्धारित अवस्थाओं को पूर्ण करना आवश्यक है। यह योगसूत्र ( २-२६ ) का मत है। नियंत्रण की विधियाँ योगाभ्यासी के औचित्यविषयक विभिन्न स्तरों की परीक्षा करती है। बुद्धि, अहंकार और मनस् पर पूर्ण नियन्त्रण करके ही कोई मनुष्य जो कुछ चाहे कर सकता है और पा सकता है । इस दर्शन को सेश्वरसांख्य कहा जाता है क्योंकि इसमें ईश्वर की सत्ता स्वीकार की गई है ।
इस दर्शन का सर्वप्रथम ग्रन्थ महाभाष्य के लेखक पतंजलि ( १५० ई० पू० ) का है। योगसूत्रों और महाभाष्य के लेखक एक ही है। यह बात परम्परा से सिद्ध होती है तथा योगसूत्र में स्फोट सिद्धान्त का उल्लेख भी इसमें सहायक है । ये सूत्र, जो संख्या में १६३ हैं, चार भागों में विभक्त हैं। उनके नाम हैं-समाधि, साधन, विभूति और कैवल्य । योगसूत्रों की ३ टीकाएँ हैं--(१) चतुर्थ शताब्दी ई० के व्यास की टीका योगसूत्रभाष्य । इसकी टीका वाचस्पति मिश्र ( ८५० ई० ) ने तत्त्ववैशारदी में की । (२) धारा के राजा भोज ( १००५-१०५४ ) ने राजमाण्ड नाम की टीका की है और (३) विज्ञानभिक्षु ( १५५० ई०) ने
१. योगसत्र ३-१७ ।