________________
प्रास्तिक-दर्शन
३८१
इस दर्शन के संस्थापक कपिल मुनि ने इसके सिद्वान्त आसुरि को पढ़ाये मुरि का समय ६०० ई० पू० से पूर्व माना जाता है । आसुरि ने यह दर्शन पंचशिख को पढ़ाया । तत्पश्चात् वार्षगण्य ने इस दर्शन को विकसित किया । उसने षष्ठितन्त्र ग्रन्थ लिखा था, वह नष्ट हो गया है । इस दर्शन का सबसे प्राचीन मौलिक ग्रन्थ तत्त्वसमास माना जाता है । उसका लेखक अज्ञात है । ईश्वरकृष्ण ( लगभग २५० ई० ) ने अपने पूर्ववर्ती लेखकों के मन्तव्यों को सांख्यकारिका के ७२ स्मरणीय श्लोकों में निबद्ध किया है । वह और विन्ध्यावास एक ही व्यक्ति थे, यह अभी तक विवादास्पद ही है । बाद के लेखक इन कारिकाओं को प्रामाणिक मानते हैं । सांख्यकारिका की ये टीकाएँ हुई हैं-- ( १ ) माठरवृत्ति | इसका लेखक अज्ञात है । (२) गौडपाद भाष्य | गौडपाद का परिचय अज्ञात है । ( ३ ) वाचस्पति मिश्र ( लगभग ८५० ई० ) कृत सांख्यतत्त्वकौमुदी । इन कारिकाओं के अतिरिक्त कपिल मुनि के लिखे सांख्यसूत्र हैं । १३०० ई० से पूर्व वे प्रामाणिक नहीं माने जाते थे, इससे पूर्व सांख्यसूत्र क्रमबद्ध रूप में उपलब्ध नहीं थे । इन सूत्रों का दूसरा नाम सांख्यप्रवचनसूत्र था । इनकी ये टीकाएँ हुई हैं( १ ) १५वीं शताब्दी में अनिरुद्ध - कृत सांख्यसूत्रवृत्ति टीका, २) विज्ञानभिक्षु ( लगभग १५५० ई० ) कृत सांख्य-प्रवचनभाष्य | विज्ञानभिक्षु ने सांख्यदर्शन के सिद्धान्तों पर सांख्यसार नामक ग्रन्थ भी लिखा है ।
1
योग-दर्शन
योग दर्शन ने सांख्य सिद्धान्तों को अपनाया है और उनका संशोधन भी किया है । योग-दर्शन का मत है कि केवल व्यक्त अव्यक्त और ज्ञ के ज्ञान से ही मोक्ष नहीं हो सकता है, अत: इस दर्शन ने क्रियात्मक जीवन के लिए सांख्यदर्शन के सिद्धान्तों पर आश्रित नियम बनाए हैं । प्रकृति और प्रकृति-विकारों के प्रभाव से पूर्णतया मुक्त होने के लिए चित्त की वृत्तियों ( मन के कार्यों ) पर पूर्ण नियन्त्रण होना अत्यावश्यक है । इसको ही पारिभाषिक रूप में 'योग' कहते हैं ।' इस दर्शन में योग के अंगों का विस्तृत १. योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः । योगसूत्र १-१