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संस्कृत साहित्य का इतिहास
अङ्गत्तरनिकाय, बुद्धवंश और ललितविस्तर बुद्ध की उपासना का समर्थन मुक्तिसाधन के रूप में करते हैं । अश्वघोष ने उनकी भक्ति पर बल दिया । सद्धर्मपुण्डरीक बुद्ध के मन्दिरों का वर्णन करता है और उनका अनुग्रह प्राप्त करने पर बल देता है। मंजुश्री, अवलोकितेश्वर तथा तारा आराध्य देवियाँ हो गयीं । इस विषय का वर्णन अवलोकितेश्वरगुणकरण्डव्यूह, सुखावतीव्यूह, कर्मपुण्डरीक और अवतंसकसूत्र में हुआ है । श्रादिकर्मप्रदीप - में बौद्धधर्म के कर्मकाण्डों का वर्णन है । इन कर्मकाण्डों में ग्राश्चर्यजनक और रहस्यात्मक कार्य भी सम्मिलित हैं ।
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वस्तुएँ शून्य हैं । जब भौतिक संसार को ज्ञान
शून्यवाद का वास्तविक सिद्धान्त यह है कि सभी तक इस तथ्य की अनुभूति न हो जाए, तब तक इस का विकास ही समझना चाहिए । इसको प्रलयविज्ञान कहते हैं । जब तक · तत्त्व - ज्ञान नहीं होता है, तब तक यही आलयविज्ञान विद्यमान रहता है । इन्द्रियों की सहायता से जो अनुभव प्राप्त होता है, उससे जो ज्ञान उत्पन्न होता है, उसे प्रवृत्तिविज्ञान कहते हैं । इन सिद्धान्तों को समझने के लिए - बौद्ध दार्शनिक प्रत्यक्ष और अनुमान इन दो प्रमाणों को स्वीकार करते हैं ।
बौद्ध-सिद्धान्तों का सबसे प्रथम सुव्यवस्थित रूप में प्रतिपादन करने वाला अश्वघोष है । उसको महायान शाखा के सिद्धान्तों का प्रमुख संस्थापक और प्रचारक माना जाता है । महायान श्रद्धोत्पाद उसकी रचना मानी जाती है । यह महायान - सिद्धान्तों का पोषक दार्शनिक ग्रन्थ है । महायान शाखा के संस्थापकों में अश्वघोष के अतिरिक्त दूसरा व्यक्ति बौद्ध दार्शनिक नागार्जुन माना जाता है । वह बौद्ध दर्शन, जादू, गणित, ज्योतिष, वैद्यक तथा कई विद्याओं का विशेषज्ञ था । उसने बहुत से ग्रन्थ लिखे थे । उनमें से अधिकांश श्रत्र चीनी और तिब्बती भाषा में ही सुरक्षित हैं । उसने माध्यमिकसूत्र लिखे हैं । इनका दूसरा नाम माध्यमिककारिका है । इन सूत्रों की संख्या ४०० है । उसने इन सूत्रों पर स्वयं प्रकुतोभय नाम की टीका की है । इनमें महायान शाखा के सिद्धान्तों का वर्णन है । उसके अन्य ग्रन्थ ये हैं - (१) युक्तिषष्ठिका, (२)
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