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________________ . . उपवेद ३५१ के हैं विद्ध और अविद्ध । प्रथम में चित्र की वास्तविकता का पूरा ध्यान रक्खा जाता है और द्वितीय में पूर्ण वास्तविकता का होना आवश्यक नहीं है, उसके द्वारा मूल वस्तु का ज्ञानमात्र होता है । चित्रों के इन दो प्रकारों का उल्लेख दो ग्रन्थों में प्राप्त होता है--कल्याण के चालुक्य राजा विक्रमादित्य षष्ठ ( लगभग १२०० ई० ) के पुत्र सोमेश्वर के अभिलषितार्थचिन्तामणि ग्रन्थ में तथा धनपाल ( लगभग १००० ई० ) की तिलकमंजरी में । विजयनगर के विद्यारण्य ( १४वीं शताब्दी ई० ) की पञ्चदशी में चित्रकला का वर्णन है। यह ग्रन्थ अब नष्ट हो गया है। आजकल इस विषय पर कोई प्राचीन ग्रन्थ प्राप्त नहीं है। रत्नों के प्रयोग के कारण रत्नशास्त्र का प्रादुर्भाव हुआ। वराहमिहिर की वृहत्संहिता में इस विषय का कुछ वर्णन प्राप्त होता है । इस विषय पर ये ग्रन्थ प्राप्त होते हैं-अगस्तिमत, बुद्धभट्ट की रत्नपरीक्षा और नारायण की नवरत्नपरीक्षा आदि । चोरी को भी एक कला माना गया है । कर्णीसुत और मूलदेव चोरविद्या के प्रामाणिक प्राचार्य माने जाते हैं। इन्होंने इस विषय पर ग्रन्थ लिखे हैं, परन्तु वे नष्ट हो गये हैं । एक षण्मुखकल्प नामक ग्रन्थ आजकल प्राप्य हैं । प्राचीन समय में वनस्पति-विज्ञान-सम्बन्धी अध्ययन भी होता था । इस विषय के अध्ययन का कोई पृथक् विभाग विद्यमान नहीं था । वृक्षों और वनस्पतियों की उत्पत्ति, उनका विकास तथा वनस्पति-सम्बन्धी अन्य विषयों का विवेचन इन ग्रन्थों में हुआ है--वृक्षायुर्वेद', अग्निपुराण, अर्थशास्त्र, वृहत्संहिता, सुश्रुतसंहिता तथा वैशेषिकदर्शन के सूत्रों पर शंकरमिश्र की टीका । शाङर्गधर ने वनस्पतियों के विभिन्न अङ्गों पर १३वीं शताब्दी में उपवनविनोद ग्रन्थ लिखा है। १. वाग्भट्ट का लिखा हुआ वृक्षायुर्वेद ग्रन्थ है । देखो आचार्य ध्रुव स्मृतिग्रन्थ में पी० के० गोडे का 'भारतीय वनस्पतियों के अध्ययन का इतिहास' लेख।
SR No.032058
Book TitleSanskrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorV Vardacharya
PublisherRamnarayanlal Beniprasad
Publication Year1962
Total Pages488
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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