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संस्कृत साहित्य का इतिहास भारत के शिल्पविद्याविशारदों के बौद्धिक और नैतिक उत्कर्ष को मचित करते हैं । नगरों का वैज्ञानिक विधि से निर्माण इस विषय का ही एक विभाग था। इस विषय पर जो ग्रन्थ लिखे गये हैं, उनकी विशेषता यह है कि उनमें वैज्ञानिक तथ्यता है, प्रशंसनीय व्यावहारिक ज्ञान की सना है, स्वच्छता सम्बन्धी सभी बातों का पूरा ध्यान रक्खा गया है और मैनिक
आवश्यकताओं का भी पूरा विचार रक्खा गया है ।" वास्तुविद्या और मूर्तिकला विषय पर ये ग्रन्थ हैं--मयमत, सनत्कुमारवास्तुशास्त्र और मानमार । वास्तुविद्या विषय पर ये ग्रन्थ हैं--श्रीकुमार ( १६वीं शताब्दी ई० । का 'शिल्परत्न और धारा के राजा भोज (१०४० ई०) का समरांगणसूत्रशर । मानसार में उन सभी शिल्पविद्या-सम्बन्धी बातों का वर्णन है, जिनमें कलात्मकता को स्थान दिया गया है। राजा कुम्भकर्ण (१४१६-१४६६ ई०) के आश्रित एक शिल्पकार मण्डन ने दो ग्रन्थ लिखे हैं--वास्तुमण्डन और प्रासादमण्डन ।
प्राचीन भारत में चित्रकला पूर्ण उन्नत अवस्था में थी। विष्णुधर्मोत्तरपुराण में एक अध्याय चित्रकला पर है । अजन्ता की गुफा के चित्रों को देखने से ज्ञात होता है कि यह कला पूर्ण उन्नति को प्राप्त हो चुकी थी। भारतीय मूर्तिकला और चित्रकला में आध्यात्मिक भावों को विशेषता दी गई है। उसमें अस्थियों और मांसपेशियों आदि की ओर विशेष ध्यान नहीं दिया गया है । संगीत, नृत्य, मूर्तिकला और चित्रकला का उद्देश्य यह है कि जनता के समक्ष संसार का सौन्दर्य उपस्थित किया जाय । जो वस्तुएँ सुन्दर मानी जाती हैं, उनमें परमात्मा का अस्तित्व प्रतिबिम्बित माना जाता है। अतएव इन कलाओं का उद्देश्य उच्च है और इनके द्वारा परमात्मा का महत्त्व प्रकट किया जाता है । अनिर्वचनीय परमात्मा का गौरव इन कलाओं के माध्यम से ही प्रकट किया जा सकता है । “कला वस्तुतः एक खिड़की है, जिससे मनुप्य वास्तविकता को देख सकता है ।" जो चित्र चित्रित किये जाते हैं, वे दो प्रकार
१. History of Indian Civilization by C. E. M. Joad पृष्ठ :३।