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ज्योतिष
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गणित ज्योतिष के जो प्राचीन ग्रन्थ प्राप्त होते हैं, वे अपूर्ण ही प्राप्य हैं । प्राचीन लेखकों के ये अन्य प्राप्त होते हैं-गार्गीसंहिता, वृद्धगार्गीसंहिता ( ३००० ई० पू० से प्राचीन), पौष्करसादि के ग्रन्थों के कुछ अपूर्ण अंश, नक्षत्रों के विषय में अथर्ववेद के परिशिष्ट और पैतामहसिद्धान्त । वराहमिहिर ने उल्लेख किया है कि ज्योतिष के इन प्राचीन आचार्यों के ग्रन्थ उसे अपूर्ण रूप में प्राप्त थे -असितदेवल, गर्ग, वृद्धगर्ग, नारद और पराशर । वराहमिहिर का स्वर्गवास ५८७ ई० में हुआ था । भारतवर्ष के विषय में जो यूनानी ऐतिहासिक सामग्री प्राप्त होती है, उससे ज्ञात होता है कि गर्गसंहिता और वृद्धगर्गसंहिता ईसवीय सन् से बहुत पूर्व विद्यमान थे। इस समय भारतीयों को गणित ज्योतिष के सिद्धान्तों का पूर्ण ज्ञान था, यह उस समय के ज्योतिष के ग्रन्थों तथा अन्य विषय के ग्रन्थों से ज्ञात होता है । चन्द्रमा जलीय ग्रह माना जाता था ।' इन्द्रधनुष जलयुक्त बादलों पर सूर्य की किरणों के प्रतिबिम्बित होने से बनता है। सूर्य और चन्द्रमा का स्थिति-स्थान तथा उनकी गति का वस्तुतः निरीक्षण किया गया था । सूर्य-बिम्ब की वास्तविकता को ठीक ढंग से समझा गया था। जो नक्षत्र सूर्य के मार्ग में हैं तथा जो नक्षत्र और ग्रह सूर्यमण्डल के समीप हैं, उनके ही स्थान का अध्ययन और निरीक्षण किया गया। पृथिवी के आकर्षण के नियम को विद्वान् जानते थे । गोले और घटिका (प्राधे घड़े के बराबर आकृति के तांबे के बर्तन) निरीक्षण के काम में पाते थे। इनसे समय का भी निर्धारण किया जाता था ।
वराहमिहिर के ग्रन्थ पंचसिद्धान्तिका से ज्ञात होता है कि ज्योतिष की पाँच शाखाएँ थीं। उनके नाम हैं -पैतामह, रोमक, पौलिश, सूर्य और वसिष्ठ । पैतामहसिद्धान्त सौर और चान्द्र दोनों गणनाओं को मानता है । रोमकसिद्धान्त में गणित ज्योतिष के यूनानी सिद्धान्तों का वर्णन किया गया है, जैसा कि इसके नाम से स्पष्ट है । इसमें भारतीय युगों की पद्धति को स्वीकार नहीं किया गया है। इसमें ग्रहणों का बहुत थोड़ा विवेचन है । मध्याह्न रेखा की
१. कुमारसंभव ५-२२ । २. कुमारसंभव ८-३१ ।'