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संस्कृत साहित्य का इतिहास की विशेषता यह है कि यह संक्षिप्त है। इसका विषय-विवेचन सरल है और इसमें कठिन तथा अप्रचलित रूपों को हटा दिया गया है । इसका नाम सारस्वत इसलिए पड़ा कि इसके सूत्रों को देवी सरस्वती ने प्रगट किया था। यह शाखा १२५० ई० के लगभग प्रारम्भ हुई। इन सूत्रों का कर्ता एक नरेन्द्र नामक व्यक्ति माना जाता है । ऐसा माना जाता है कि अनुभूतिस्वरूपाचार्य ने इन सूत्रों को क्रमबद्ध किया है और इन पर सारस्वतप्रक्रिया नामक टीका लिखी है । वह १३वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में हुआ था। इस सारस्वतप्रक्रिया पर १५ टोकाएँ लिखी गई हैं। उनमें से कुछ टीकाएँ ये हैं-मण्डन का मण्डनभाष्य तथा रामचन्द्राश्रम की सिद्धान्तचन्द्रिका । रामचन्द्राश्रम का समय १५५० ई० माना जाता है। इस शाखा के लिए हर्षकोति ( १५५० ई० ) ने धातुपाठ तैयार किया। यह पद्धति भट्टोजिदीक्षित के समय तक प्रचलित थी।
बोपदेव शाखा का ग्रन्थ बोपदेव कृत मुग्धबोध है। बोपदेव १३वीं शताब्दी ई० में हुआ था। यह शाखा पाणिनीय व्याकरण को सरल बनाने के लिए प्रारम्भ हुई थी। इस पद्धति की ये विशेषताएँ हैं-विषय-विवेचन की सरलता, संक्षेप तथा धार्मिक भावों का सम्मिश्रण । इस शाखा में जो पारिभाषिक शब्दावली का प्रयोग किया गया है, वह कठिनता से समझ में आता है, अतएव यह व्याकरण कठिन हो गया है । रामतर्कवागीश ने मुग्धबोध की टीका की है । बोपदेव कविकल्पद्रुम का भी लेखक माना जाता है। इसमें धातुओं को अन्त्याक्षर के अनुसार क्रमबद्ध किया गया है । इस पर बोपदेव ने ही कामधेनु नाम को टोका भी लिखी है। ___ जौमरशाखा का संस्थापक क्रमदीश्वर था। उसने पाणिनीय अष्टाध्यायी का संक्षिप्त रुप संक्षिप्तसार ग्रन्थ लिखा है । लेखक का समय ११वीं शताब्दी के बाद और १४वीं शताब्दी के पूर्व का है। जूमरनन्दी ने इस शाखा को नवीन रूप दिया है, अत: इस शाखा का नाम उसी के नाम पर पड़ा है। जूमरनन्दो ने संक्षिप्तसार पर रसवती नाम की एक टीका लिखी है।