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________________ शास्त्रीय ग्रन्थ '३१५ १२वीं शताब्दी में संक्षिप्तसार पर एक दूसरी टीका गोयीचन्द्र की लिखी हुई गोयीचन्द्रिका है। ___सौपन शाखा की स्थापना पद्मनाभभट्ट ने की थी। वह १४वों शताब्दी में हुआ था। उसने पाणिनीय व्याकरण के अधिकांश भाग को सौपद्म-व्याकरण लिखकर नवीन रूप दिया है । इस पर उसने स्वयं सौपद्मपंजिका नाम को टोका लिखी है । चैतन्य के एक शिष्य रूपगोस्वामी ने हरिनामामृत नामक व्याकरण का एक ग्रन्थ लिखा है । इससे ज्ञात होता है कि उसने व्याकरण को साम्प्रदायिक रूप में प्रस्तुत किया है । इसी प्रकार के और दो ग्रन्थ हैं--जीवगोस्वामी का हरिनामामृत और एक अज्ञात लेखक का चैतन्यामृत । इन ग्रन्थों में कृष्ण की प्रशंसा की गई है, परन्तु इसके विपरीत बालरामपंचानन की प्रबोधचन्द्रिका में गिव की प्रशंसा की गई है। ___ संस्कृत व्याकरण के साथ ही साथ प्राकृत व्याकरण का भी स्वतन्त्र रूप से विकास हया। इसका सबसे प्राचीन ग्रन्य वररुचि का प्राकृतप्रकाश है। इसमें प्रथम ६ अध्यायों में महाराष्ट्री प्राकृत का वर्णन है और बाद के तीन अध्यायों में क्रमशः पैशाची, मागधी और शौरसेनी प्राकृत का वर्णन है। इसमें अपभ्रंश का वर्णन नहीं है। वररुचि का समय ५०० ई० के पूर्व का मानना चाहिए, क्योंकि ५०० ई० से अपभ्रंश विभाषा के रूप में विकसित हुअा है । भारतीय परम्परा वररुचि और वार्तिककार कात्यायन को एक ही व्यक्ति मानती है। अतः उसका समय कात्यायन का ही समय मानना चाहिए । प्रसिद्ध साहित्यशास्त्री भामह ( लगभग ५०० ई० ) ने केवल अन्तिम अध्याय को छोड़कर शेष सभी अध्यायों पर मनोरमा नाम की टीका लिखी है। १०वीं शताब्दी में रामपाणिवाद ने प्रथम ६ अध्यायों पर प्राकृत-प्रकाशवृत्ति नाम की टीका लिखी है। कृष्णलीलाशुक ( लगभग ११५० ई० ) ने श्रीचिह्नकाव्य लिखा है। इसमें उसने वररुचि के प्राकृतप्रकाश के नियमों के उदाहरण प्रस्तुत किये हैं।
SR No.032058
Book TitleSanskrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorV Vardacharya
PublisherRamnarayanlal Beniprasad
Publication Year1962
Total Pages488
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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