________________
वेद और पाश्चात्य विद्वान्
२१
कौन इन विधियों को करे, इसका स्वरूप जानना चाहिये तथा जिस देवता को प्रसन्न करते हैं उसका स्वरूप तथा अन्य विवरण भी जानना चाहिए । व्यक्तियों में से कुछ वैदिक विधियों के कार्य से ऊब भी गए होंगे, उन्होंने प्रयत्न किया होगा कि आत्मा के स्वरूप को जानें। इन विषयों पर इस काल में प्रश्नोत्तर भी हुए होंगे । इन सब बातों का संग्रह किया गया और इनको उपनिषद् नाम दिया गया । इन उपनिषदों की भी गणना वैदिक साहित्य में की जाती है और ये आरण्यक ग्रन्थों के अन्तिम भाग हैं । इनमें जो विचार रखे गए हैं उससे प्रकट होता है कि उनमें से कुछ बहुत प्राचीन हैं ।
यद्यपि वेदों का विभाजन उपर्युक्त रूप से है, तथापि यह प्रगट होता है कि इनमें से विभिन्न भाग विभिन्न समयों में बने हैं । कृष्ण यजुर्वेद से बहुत समय पूर्व सामवेद की रचना हो चुकी थी ।
ऋग्वेद के मंत्र पृथक्-पृथक् तथा सामूहिक रूप में विभिन्न ऋषियों के नाम के साथ संबद्ध हैं । इन ऋषियों को इन मंत्रों का रचयिता कह सकते हैं । कुछ स्थलों पर लेखक का नाम भूल गया है । इस प्रकार ऋग्वेद का सम्पूर्ण मल-ग्रन्थ विभिन्न समय में विभिन्न व्यक्तियों के द्वारा लिखा गया है । यही अन्य वेदों के मूलग्रन्थ के विषय में कहा जा सकता है । ऋग्वेद का सबसे पुराना अंश लगभग ३००० ( तीन सहस्र ) ई० पू० में लिखा गया था । संपूर्ण वेद ६०० ई० पू० से पूर्व प्राप्त थे, जब कि गौतम बुद्ध ने वेदों की सत्ता मानकर उनमें प्राप्त कतिपय सिद्धान्तों का विरोध किया और अपने सिद्धान्त का प्रचार किया ।
पाश्चात्त्य विद्वानों ने जब वेदों का अध्ययन प्रारम्भ किया तो उन्होंने भारतीय विद्वानों द्वारा लिखी गई वेदों की टीकात्रों की सहायता ली। इन टीका में जो व्याख्या दी गई है, उनमें से कुछ स्थलों की व्याख्या भ्रमात्मक तथा असंतोषजनक है । अतएव पाश्चात्त्य विद्वानों ने यह उचित समझा कि मूल ग्रन्थ की व्याख्या प्रकरण के आधार पर की जाय । वेद, विशेषरूप से ऋग्वेद, उनको साधारण भाषा में लिखे हुए प्रतीत हुए। उसमें उन्हें कठिन