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संस्कृत साहित्य का इतिहास
पाठ होता था और इन मंत्रों में विशेष प्रभाव और संगीत-संबंधी सफलता के लिए सामवेद का निर्माण हुआ । इसमें ऋग्वेद के मंत्र हैं, साथ ही संगीत में उपयोग के लिए आवश्यक निर्देश दिये गए हैं। जब इस प्रकार कर्मकाण्ड वाला अंश उन्नति पर था, यजमान की शत्रुत्रों से सुरक्षा के लिए कुछ कार्यवाही की आवश्यकता थी । ये शत्रु वे थे जो कि इन विधियों के लिए सहयोग न देते थे या जो यजमान को दबा देना चाहते थे । ये शत्रु वस्तुतः जंगली जाति के व्यक्ति थे, जो भारतभूमि में विदेशियों के निवास को रोकने का प्रयत्न करने वाले भारत के आदिवासी थे । ऐसे शत्रुत्रों पर आक्रमण और उनको वश में करने के लिए उपाय किए गए। इन प्रयत्नों ने मंत्र का रूप धारण किया और विभिन्न देवताओं से संबद्ध विभिन्न विधियों का रूप धारण किया । इन सबका संग्रह श्रथर्ववेद में हुआ है ।
जितने देवता थे और जितने उद्देश्य थे, उतनी ही विधियाँ हुईं । इन विधियों का जो भाग व्याख्यात्मक था, उसने ब्राह्मण ग्रन्थों का रूप धारण किया । प्रत्येक वेद से मंत्रों और विधियों का सम्बन्ध आवश्यक समझा गया, अतएव प्रत्येक वेद के साथ में ब्राह्मण ग्रन्थों का भी प्रादुर्भाव हुआ ।
इन विधियों में से अधिकांश विधि एक व्यक्ति अपने परिवार के लोगों या अपनी जाति के व्यक्तियों के साथ संपन्न करता था । एक व्यक्ति जिसने अपने जीवन का अधिकांश भाग अपने परिवार के व्यक्तियों के साथ व्यतीत किया है, जब वह वानप्रस्थ का जीवन व्यतीत करना चाहता था, तब यह उचित समझा गया कि वह सहसा इन विधियों का परित्याग न कर दे । वानप्रस्थ के जीवन में उसके लिए कुछ विधियों का करना आवश्यक समझा गया । इस प्रकार वानप्रस्थियों के लिए मंत्र तथा विधियाँ आरण्यक ग्रन्थों में दी गईं । ब्राह्मण ग्रन्थों के तुल्य आरण्यक ग्रन्थ भी बहुत से हैं और उनका सम्बन्ध प्रत्येक वेद से है ।
जो व्यक्ति इस प्रकार वानप्रस्थ का जीवन व्यतीत करने लगे थे, उनकी इच्छा हुई कि इन वैदिक विधियों के क्रियाकलाप का आधार जानना चाहिए ।