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संस्कृत साहित्य का इतिहास
व्याकरण
वेदांगों में व्याकरण का प्रमुख स्थान है । अन्य भाषाओं में व्याकरण साहित्य का एक अंग माना जाता है, परन्तु संस्कृत के अध्ययन के विषय में एक स्वतंत्र विषय है। इसकी उत्पत्ति वैदिक काल से है। इसके विकान पर दो अन्य वेदांगों निरुक्त और शिक्षा का बहुत अधिक प्रभाव पड़ा है।
वैदिकोतर काल में कई ऐसे वैयाकरण हुए हैं, जिन्होंने यह प्रयत्न किया है कि भाषा के लिए नियमों को बनाया जाय और उन्होंने इसके लिए अपने ग्रन्थ भी बताए । पाणिनि के अतिरिक्त अन्य सभी के ग्रन्थ नष्ट हो गये हैं। बह अटक के समीप शालातुर स्थान पर उत्पन्न हुआ था । वह दाक्षि का पुत्र था। उसका समय ७०० ई० पू० और ६०० ई० पू० के बीच का माना जाता है । कथासरित्सागर के अनुसार वह वर्ष का शिष्य था । उसके सहपाठी थेकात्यायन, व्याडि, और इन्द्रदत्त । उसे प्राचार्य वर्ष से जो शिक्षा प्राप्त हई उससे वह सन्तुष्ट नहीं हुा । उसने भगवान् शिव की उपासना की और उन्होंने प्रसन्न होकर उसको १४ माहेश्वर सूत्र [ प्रत्याहार सुत्र ] प्रदान किए । उसने उन १४ सूत्रों को विकसित किया । पाणिनि से पूर्ववर्ती कितने ही आचार्य हो चुके हैं। उनके ग्रन्थ पाणिनि को प्राप्त थे। उसने नये पारिभाषिक शब्द, शब्दार्थ की व्याख्या के नये नियम तथा प्रत्ययों आदि का आविष्कार किया । उसने पाठ अध्यायों में अष्टाध्यायी नामक ग्रन्थ की रचना की। इसमें लगभग ४ सहस्र सूत्र हैं। पाणिनि ने बहत छोटे पारिभाषिक शब्द रक्खे हैं, प्रत्याहारों का उपयोग किया है तथा सूत्रों में उन शब्दों को नहीं रक्खा है जो पूर्व सूत्र से अनुवृत्ति के द्वारा प्राप्त हो सकते हैं । इस प्रकार उसके सूत्रों में अति संक्षेप हो सका है । उसने शब्दयों
और धातुरूमों का अति सूक्ष्मता के साथ प्रकृति और प्रत्यय के रूप में विश्लेषण किया है। पाणिनि को अष्टाध्यायी विश्व का एक आदर्श ग्रन्थ है। इसमें सर्वाङ्गपूर्ण अनुसन्धान तथा पारिभाषिक पूर्णता है। पाणिनि ने धातुपाठ,