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शास्त्रीय ग्रन्थ
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के लिए प्रामाणिक व्यक्ति थे। विभिन्न शास्त्रों की उत्पत्ति तथा प्रत्येक के विभिन्न विचारों के कारण कतिपय स्थलों पर सर्वथा विरोधी मत प्राप्त होते थे, अतः विद्यार्थी उन शंकास्पद स्थलों को अपने गुरुओं से पूछते थे और वे उनका उत्तर देते थे । सूत्रों पर इन प्रश्नोत्तरों का संग्रह किया गया और उन संग्रहों को भाष्य नाम दिया गया। गुरु उन सूत्रों पर कुछ आलोचनात्मक बातें भी कहते थे। उनका संग्रह वार्तिकों और वृत्तियों के रूप में हुआ देखिए :
उक्तानुक्तदुरुक्तानां चिन्ता यत्र प्रवर्तते ।
तं ग्रन्थं वार्तिकं प्राहुातिकज्ञा मनोषिणः ।। प्रत्येक विषय पर जो सामग्री तैयार हो रही थी, उसके मुख्य सिद्धान्तों को स्पष्ट रूप में रखने के लिये उनको कारिकाओं के रूप में रक्खा गया। अधिकांश में इन कारिकाओं का भाष्य भी लेखक करते थे। समय-समय पर राजद्वारों तथा विद्वत्सभाओं में विभिन्न शास्त्रीय सिद्धान्तों पर वाद-विवाद होते थे। इस प्रकार के वाद-विवादों का परिणाम यह हुआ कि यह शास्त्रीय साहित्य संवादात्मक और विद्वत्तापूर्ण हुआ । साधारणतया ये वादविवाद गद्य में लिखे गये हैं। बाद में इस प्रकार के जो वादविवाद लिखे गये हैं. वे लम्बे-लम्बे समासों से युक्त हैं। उनमें जो श्लोक दिये गये हैं, वे किसी निर्णय के बोधन के लिए हैं या विशेष विचारणीय किसी विषय का निर्देश करते हैं। बाद के शास्त्रीय साहित्य में क्रियाओं का प्रयोग बहुत कम है । नास्तिक दर्शनों को छोड़कर अन्य सभी शास्त्रों ने अपना उदभव वेद से माना है।
१४ विद्याएँ मानी जाती हैं। उनके नाम ये हैं--४ वेद, ६ वेदांग पुराण, न्याय, मीमांसा और धर्मशास्त्र ।' आयुर्वेद, धनुर्वेद, गान्धर्ववेद और मर्यशास्त्र ये ४ उपवेद हैं । इन चारों को लेकर १८ विद्याएँ अर्थात् शास्त्र हैं। १. पुराणन्यायमीमांसाधर्मशास्त्रांगमिश्रिताः ।
वेदाः स्थानानि विद्यानां धर्मस्य च चतुर्दश ।। याज्ञवल्क्य स्मति १.३.