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काव्य और नाट्य शास्त्र के सिद्धान्त
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(३) परुषा अर्थात् कठोर । उसका यह विभाजन केवल शब्दों के आधार पर ही था । भरत के बाद यही सबसे पहला लेखक है, जिसने रस पर बहुत महत्त्व दिया है | यह पहला लेखक है, जिसने शान्त को नवम रस माना है, । ६५०ई० के लगभग प्रतिहारेन्दुराज ने भामहालङ्कार पर टीका लिखी है, परन्तु उसने उद्भट से अधिक कोई बात महत्त्व की नहीं लिखी है ।
ध्वनि का सिद्धान्त ८२० ई० के लगभग १२० स्मरणीय कारिकाओं में प्रकट किया गया । इन कारिकाओं के लेखक का नाम ज्ञात नहीं है, किन्तु बाद के लेखकों के उल्लेख से ज्ञात होता है कि इन कारिकाओं के लेखक को सहृदय की उपाधि प्रदान की गई थी । ८५० ई० के लगभग श्रानन्दवर्धन ने इन कारिकाओं पर टीका की और ग्रन्थ का नाम ध्वन्यालोक रक्खा । इसमें कारिकाएँ है तथा उन पर प्रादन्दवर्धन की वृत्ति है और उनके उदाहरणस्वरूप विभिन्न लेखकों से उद्धृत तथा अपने श्लोक हैं । इसमें १२ कारिकाएँ हैं। ये चार उद्योत (अध्यायों) में विभक्त हैं । बाद के लेखक इन कारिकाओं के लेखक के विषय में भ्रम में रहे हैं और उन्होंने आनन्दवर्धन को ही इन कारिकाओं में से कुछ का लेखक माना है । उसकी शैली सरल और व्याख्यात्मक है । उसने अपने निम्नलिखित ग्रन्थों से भी उद्धरण दिए हैं -- देवीशतक, अर्जुनचरितमहाकाव्य, विषमबाणलीला और हरविजय । अन्तिम दो प्राकृत में लिखे गये हैं । प्रथम को छोड़कर शेष सभी नष्ट हो गये हैं ।
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अभिनवगुप्त ने १००० ई० के लगभग अपने ग्रन्थ ध्वन्यालोकलोचन में ध्वन्यालोक की टीका की है । ऐसा माना जाता है कि उसने १६ गुरुत्रों से विद्याध्ययन किया था । उसको इन्दुराज ने ध्वनि की शिक्षा दी थी और भट्टतौत ने नाट्यशास्त्र की । श्रभिनवगुप्त ध्वनि और नाट्यशास्त्र पर प्रामाणिक आचार्य होने के अतिरिक्त शैव मत के प्रत्यभिज्ञावाद का मुख्य श्राचार्य
. Abbinavagupta, Historical and philosophical study by K. C. Pandey - पृष्ठ ११
सं० सा० इ० - १६